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________________ भाव की अपेक्षा से है। घट अपनी स्वचतुष्टयी की अपेक्षा से है । स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक धर्म का विधान होता है । घट स्वचतुष्टयी की अपेक्षा से अस्ति रूप है । इसको हम इस रूप में समझ सकते हैं--- १. स्वद्रव्य दृष्टि २. स्वक्षेत्र दृष्टि यह घट मिट्टी का बना है । यह घट लाडनूं में बना हुआ है यह घट सर्दी में बना हुआ है 1 1 ३. स्वकाल दृष्टि ४. स्वभाव दृष्टि यह लाल रंग का है। सप्तभंगी के प्रथम भंग से घट के अनन्त धर्मों में से एक अस्ति धर्म विवक्षित हुआ है। २. स्यात् नास्त्येव घटः - घट कथंचित् नहीं है। दूसरा भंग वस्तु के अभावात्मक धर्म, नास्तित्व की सूचना देता है । घड़ा जैसे स्वचतुष्टय से अस्ति रूप है । वैसे ही परचतुष्टय की अपेक्षा वह नास्ति रूप ही है । इसको हम इस रूप में समझ सकते हैं १. परद्रव्य दृष्टि यह सोने का घड़ा नहीं है । २. परक्षेत्र ३. परकाल यह सुजानगढ़ का बना हुआ घड़ा नहीं है 1 यह गर्मी की ऋतु में बना हुआ घड़ा नहीं है । यह काले रंग का घड़ा नहीं है । ४. परभाव द्वितीय भंग यह भी स्पष्ट करता है कि घड़ा पुस्तक, टेबल, कलम आदि नहीं है। प्रथम भंग जहां यह कहता है कि घड़ा घड़ा ही है, वहां द्वितीय भंग यह बताता है कि घड़ा घट से इतर अन्य कुछ भी नहीं है । कहा भी गया है-'सर्वमस्तिस्वरूपेण पररूपेण नास्ति च' अर्थात् सभी वस्तुओं का अस्तित्व स्वरूप से है पररूप से उनका अस्तित्व नहीं है । यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के I गुण धर्मों की सत्ता मान ली जाये तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक भेद ही समाप्त हो जायेगा और वस्तु का स्वरूप भी नहीं बन सकेगा अतः वस्तु में परचतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है । प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता है कि वस्तु क्या नहीं है । ३. स्यात् अवक्तव्यमेव घटः - घट कथंचित् अवक्तव्य है । सप्तभंगी का यह तृतीय भंग भाषा की अक्षमता का स्पष्ट बोध करा रहा है । घट में विद्यमान विधि एवं निषेध दोनों धर्मों का एक साथ कथन किसी भी शब्द से नहीं किया जा सकता । जब विधि का कथन होगा तब निषेध का कथन नहीं होगा। जब निषेध का कथन होगा तब विधि का कथन नहीं हो सकेगा । जब एक ही समय ३४ • व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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