SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य में स्याद्वाद को समझाने के लिए कई व्यावहारिक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। एक पुरुष विशेष में पुत्रत्व, पितृत्व, मातुलत्व, भागिनेयत्व आदि विभिन्न अवस्थाएं रहती हैं। जैसे–देवदत्त नामक व्यक्ति पिता भी है, पुत्र भी है, मामा भी है, भानजा भी है। प्रश्न हो सकता है एक ही व्यक्ति पिता-पुत्र, मामा-भानजा कैसे हो सकता है? देवदत अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है एवं अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है। अपने भानजे की अपेक्षा मामा है और मामा की अपेक्षा भानजा है। विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर विभिन्न विरोधी धर्मों का अस्तित्व एक ही वस्तु में संभव है। एक अपेक्षा से विभिन्न विरोधी धर्म एक साथ घटित नहीं हो सकते। यथा-देवदत्त अपने पिता की अपेक्षा पिता भी है एवं पुत्र भी है, यह वक्तव्य मिथ्या होगा क्योंकि देवदत्त अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र ही है, वह अपने पिता की अपेक्षा से कभी पिता हो ही नहीं सकता अतः स्याद्वाद सिद्धान्त का अवबोध करने के लिए अपेक्षा को समझना बहुत आवश्यक है। स्याद्वाद और समन्वय स्याद्वाद सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय करता है। जैन दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समावेश नयवाद में हो जाता है, अतएव सम्पूर्ण दर्शन नय की अपेक्षा से सत्य है। सारे एकान्तवादी दर्शन परस्पर निरपेक्ष होकर मिथ्या होते हैं किन्तु जब वे परस्पर सापेक्ष हो जाते हैं तब वे यथार्थ बन जाते हैं। ये नयरूप समस्त दर्शन परस्पर विरूद्ध होकर भी समुदित होकर यथार्थ कहे जाते हैं। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न मणियों के एकत्र गूंथे जाने से सुन्दर माला तैयार हो जाती है, उसी तरह भिन्न-भिन्न दर्शन परस्पर सापेक्ष होकर यथार्थ बन जाते हैं। जिस प्रकार धन, धान्य आदि वस्तुओं के लिए विवाद करने वाले पुरुषों को कोई साधु पुरुष समझा कर शांत कर देता है, उसी तरह स्याद्वाद परस्पर एक दूसरे पर आक्रमण करने वाले दर्शनों को सापेक्ष सत्य मानकर उनमें समन्वय स्थापित करता है। उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ॥ तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यतां। मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित्। व्रात्य दर्शन - ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy