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स्याद्वाद के माध्यम से समन्वय को प्रस्थापित करके व्यक्ति सुख और शांति से जीवन यापन कर सकता है।
सप्तभंगी की परिभाषा
सप्तभंगी जैन-न्याय का वस्तु-विश्लेषण और प्रतिपादन का विशिष्ट सिद्धान्त है। इसमें सात प्रकार के विशेष प्रकथनों के माध्यम से किसी वस्तु अथवा धर्म को समग्रता से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया जाता है। स्याद्वाद वस्तु के अनन्त धर्मों का प्रतिपादन सात भंगों और नयों के माध्यम से करता है। 'सप्तभंगनयापेक्षः स्याद्वादः' प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, और प्रत्येक धर्म का कथन अपने विरोधी धर्म की अपेक्षा से सात प्रकार से किया जाता है। प्रत्येक धर्म का सात प्रकार से कथन करने की शैली का नाम ही सप्तभंगी है। इसमें सात भंग (विकल्प) होने के कारण इसका नाम सप्तभंगी है। आचार्य अकलंकदेव ने सप्तभंगी को परिभाषित करते हुये कहा-'प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी' अर्थात् एक ही वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है। ‘सप्तानां भंगानां समाहारः सप्तभंगी' सात भंगों (विकल्पों) का समूह सप्तभंगी है। सात भंग
जैन आचार्यों की दृष्टि में सप्तभंगी एक ऐसा सिद्धान्त है जो वस्तु का आंशिक कथन करके भी वस्तु की समग्रता को दृष्टि से ओझल नहीं होने देता है। सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करता है। हमारी भाषा अस्ति (है) और नास्ति (नहीं) विधि और निषेध की सीमा में आबद्ध है हमारे प्रायः सारे वक्तव्य विधिरूप होते हैं अथवा निषेध रूप होते हैं किन्तु कभी-कभी ऐसी समस्याएं भी आती है जब केवल विधि-मुख से या केवल निषेध-मुख से कथन को स्पष्ट करना असम्भव हो जाता है ऐसी स्थिति में एक तीसरे विकल्प का सहारा लेना पड़ता है जिसे जैन दर्शन में अवक्तव्य या अवाच्य कहा जाता है। इस प्रकार किसी वस्तु के प्रतिपादन के समय वस्तु के विधि धर्म, का अथवा निषेध धर्म का अथवा अवक्तव्य धर्म का उल्लेख किया जाता है। अस्ति, नास्ति एवं अवक्तव्य से तीन भंग मौलिक है। इन्हीं तीन भंगों की विशेष प्रकार की संयोजना से अपुनरुक्त सात भंग बन जाते हैं।
सात भंग निम्नांकित हैं
३२ . व्रात्य दर्शन
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