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कर उसका समर्थन करना। स्यादस्ति घटः यहां घट का अस्तित्व गम्य है और स्यान्नास्ति घटः यहां घट का नास्तित्व अभिधेय है। स्यात् शब्द घट में किस अपेक्षा से अस्तित्व है एवं किस अपेक्षा से नास्तित्व है इसका प्रतिपादन करता है। स्यात् के साथ जैनाचार्यों ने ‘एव' पद का भी प्रयोग किया है ‘स्यादस्त्येव घटः' इसका तात्पर्य है घट अमुक अपेक्षा से है ही। इस प्रकार स्याद्वाद वस्तु का निश्चयता से प्रतिपादन करता है। वह संशय या संभावनावाद हो ही नहीं सकता।
__ आचार्य सम्मन्तभद्र ने 'स्यात्' शब्द को निपात माना है जो अर्थ के साथ सम्बन्धित होने पर वाक्य में अनेकान्त का द्योतक है तथा गम्य अर्थ का विशेषण होता है।
वाक्येष्वनेकान्तद्योति गम्यं प्रति विशेषणम् ।
स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ ‘स्यात्' शब्द पूर्ण सत्य के प्रतिपादन का माध्यम है। एक धर्म की मुख्यता से वस्तु को बताते हुये भी हम उसकी अनन्त धर्मात्मकता को ओझल नहीं करते। इस स्थिति को संभालने वाला स्यात् शब्द है। यह प्रतिपाद्य धर्म के साथ शेष अप्रतिपाद्य धर्मों की एकता बनाये रखता है। इसलिए इसे प्रमाणवाक्य या सकलादेश कहा जाता है।
प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। हम इन अनन्त धर्मों से कुछ को ही जानते हैं तथा उसमें से भी कुछ ही धर्मों का प्रतिपादन कर सकते हैं। जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न-भिन्न अवयवों को हाथ से टटोलकर हाथी के उन भिन्न-भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर विवाद उत्पन्न करते हैं, इसी प्रकार जो सत्य के एक अंश को जानता है तथा उसे ही सम्पूर्ण सत्य मान लेता है। तब दार्शनिक जगत् में समस्याएं उत्पन्न होती हैं। स्याद्वाद एवं अनेकान्त दृष्टि से इन समस्याओं का समाधान प्राप्त होता है। एक दार्शनिक कहता है वस्तु सामान्यात्मक है दूसरा उससे विपरीत वस्तु का कथन करता हुआ उसे विशेष प्रतिपादित करता है। स्याद्वाद इन दोनों विरोधी वक्तव्यों में समन्वय स्थापित करता है। वह समाधान करते हुये प्रतिपादन करता है कि संग्रह नय की अपेक्षा से वस्तु सामान्यात्मक है एवं ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से वह विशेषात्मक है। वस्तु को जो सामान्यात्मक कह रहा है उसका ध्यान वस्तु के द्रव्य स्वरूप पर केन्द्रित है तथा विशेष कहने वाला वस्तु के पर्याय रूप को मुख्यता दे रहा है, जबकि वस्तु स्वभावतः ही सामान्य-विशेषात्मक है।
३०. व्रात्य दर्शन
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