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________________ होते हैं। आज व्यवहार जगत् में अनेकान्त के प्रयोग के द्वारा व्यवहार जगत् की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। अनेकान्त का व्यवहार अनेकान्त सहिष्णुता का दर्शन है। राजनीति का क्षेत्र हो या समाजनीति का, धर्मनीति का हो या शिक्षानीति का, सफलता के लिए अनेकान्त दर्शन को व्यवहार्य बनाना आवश्यक है। जब तक सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, सामञ्जस्य आदि मूल्यों को व्यावहारिक नहीं बनाया जायेगा तब तक समाधान उपलब्ध नहीं होगा। सहिष्णुता आदि सारे मूल्य अनेकान्त के ही परिकर हैं। मनुष्य अनेकान्त को समझे और इसके अनुरूप आचरण करे तो युगीन समस्याओं का समाधान हो सकता है। अनेकान्त दृष्टि से समस्या का समाधान खोजने पर आग्रह-विग्रह का प्रसंग उपस्थित नहीं होता। अनेकान्त दृष्टिवाला व्यक्ति किसी एक मान्यता, सिद्धान्त, प्रथा आदि में आसक्त नहीं होता। वह हिताहित का विचार करता है। अनेकान्ती मान्यता, परम्पराओं का त्याग नहीं करता किन्तु उन पर विचार कर हेय, उपादेय का विवेक करता है। अनेकान्त में कट्टरता, हठधर्मिता एवं संकीर्णता को कोई स्थान नहीं है। अनेकान्ती दृष्टि वाला व्यक्ति अनाग्रही होगा। वह समस्या के समाधान में अपने दृष्टिकोण को लचीला बनाये रखेगा। वह परिस्थिति के अनुसार अपना समायोजन करने में सक्षम होगा। अनेकान्त का विभिन्न संदर्भो में महत्त्वपूर्ण उपयोग है। वह न केवल दार्शनिक समस्याओं का समाधायक है। बल्कि उसके द्वारा व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी प्राप्त किया जा सकता है। स्याद्वाद जैन दर्शन की चिंतनशैली का नाम अनेकान्त एवं प्रतिपादन शैली का नाम स्याद्वाद है। अनेकान्त परिकल्पित सिद्धान्त नहीं है अपितु वह यथार्थ जगत् का सत्य है। वस्तु आधारित सत्य है। ज्ञाता की परिकल्पना नहीं है। जैन के अनुसार ज्ञेय अर्थात् वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, 'अनन्तधर्मकं वस्तु' और वह ज्ञेय, संख्या में अनन्त है। जैन दर्शन वेदान्त के ब्रह्म की तरह किसी एक तत्त्व की सत्ता नहीं मानता उसके अनुसार तत्त्व अनेक हैं। ज्ञेय अनन्त हैं। ज्ञान अनन्त है किन्तु भाषा अनन्त नहीं है। ज्ञान शक्ति असीम है किन्तु शब्द शक्ति सीमा में आबद्ध है अतः अनन्त ज्ञान एक क्षण में अनन्त ज्ञेय को जान सकता है किन्तु वाणी अनन्त ज्ञेय को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। सम्पूर्ण सत्य को युगपत् अभिव्यक्त व्रात्य दर्शन • २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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