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धर्म एक साथ घटित हो रहे हैं। इस विवेचन से स्पष्ट है कि एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व जो विरोधी प्रतीत होते हैं उनमें कोई विरोध नहीं है। प्रधानता एवं गौणता
जैन दर्शन के अनुसार वस्तु के स्वरूप में विरोधी धर्मों की सह-अवस्थिति है, यह स्पष्ट हो चुका है। द्रव्य का द्रव्यत्व बनाये रखने के लिए विरोधी धर्मों का सहभाव होना अत्यन्त अपेक्षित है। अस्ति और नास्ति का परस्पर अविनाभाव है। ये एक दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते हैं। जहां अस्तित्व है वहां नास्तित्व निश्चित रूप से है। विरोधी युगलों में संगति स्थापित करने का आधार है-विवक्षा। जिस समय में पदार्थ के जिस गुण धर्म की विवक्षा होती है, वह प्रधान हो जाता है शेष सारे धर्म उस समय गौण हो जाते हैं। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसके प्रत्येक धर्म का अर्थ भिन्न है। वस्तु के धर्मों में स्वतः प्रधानता एवं गौणता नहीं किन्तु वक्ता की विवक्षा से वे धर्म प्रधान या गौण बन जाते हैं। जब वक्ता वस्तु के नित्यत्व धर्म का प्रतिपादन करता है तब अनित्यता आदि अन्य धर्म अप्रधान बन जाते हैं। ऐसा किये बिना प्रत्येक पदार्थ हमारे लिए अनुपयोगी या अप्रासंगिक हो जाता है।
गति की सामान्य प्रक्रिया है कि एक पैर आगे रहे और एक पीछे रहे। यदि दोनों पैर आगे या बराबर रहने का आग्रह करें तो गतिक्रिया नहीं हो सकती। बिलौना करते समय मथनी की रस्सी को थामने वाले दोनों हाथ क्रमशः आगे पीछे होते रहते हैं। तभी मंथन होता है। नवनीत निकलता है। एक समय में वस्तु के एक धर्म की प्रधानता और शेष समस्त धर्मों की अप्रधानता अनेकान्त का व्यावहारिक रूप है। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसी तथ्य को अभिव्यञ्जित करते हुये कहा
एकनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ अनेकान्त जैन दर्शन का मूलभूत सिद्धान्त है। भगवान् महावीर ने अनेकान्त सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। जैन आगमों में अनेकान्त शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध नहीं है किन्तु अनेकान्त के सम्पोषक तथ्यों से आगम ग्रन्थ परिपूर्ण है। अनेकान्त आगम युग से दर्शन युग तक एवं दर्शन युग से वर्तमान युग तक अपनी निरन्तर विकास यात्रा करता आ रहा है। अलग-अलग युग के अलग प्रश्न और समाधान
२६ . व्रात्य दर्शन
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