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इस शाश्वत धर्म की अपेक्षा आत्मा नित्य है। आत्मा विभिन्न योनियों में विभिन्न अवस्था को प्राप्त करती रहती है। मनुष्य गति में मनुष्य रूप में रहने वाली आत्मा अन्य गति में जाकर नारक, देव, तिर्यञ्च आदि बन जाती है। उसकी मनुष्य पर्याय का नाश एवं देव आदि अन्य पर्याय का उत्पाद हो जाता है इस उत्पाद, व्यय के कारण आत्मा अनित्य है। आत्मा का चेतनामय स्वरूप कभी भी नष्ट नहीं होगा अतः वह नित्य है किन्तु उसमें भी स्वाभाविक परिणमन हो रहा है। अतः बिना किसी बाहरी हेतु के भी उसमें अर्थपर्याय जन्य उत्पाद व्यय हो रहा है। अतः वह स्वरूपतः नित्य एवं अनित्य दोनों है।
उत्पन्न होना, नष्ट होना तथा स्थित (ध्रुव) रहना यह सत् (वस्तु) का स्वरूप है। तत्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा- 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।' अस्तित्ववान् पदार्थ में यह त्रिपदी नियमतः रहती है। पर्याय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न एवं नष्ट हो रहा है तथा द्रव्य की अपेक्षा से वह ध्रुव एवं शाश्वत है उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। आचार्य समन्तभद्र ने आप्त-मीमांसा में एक उदाहरण द्वारा इस तथ्य को समझाया है।
उदाहरण से स्पष्टता
एक राजा है। उसके एक पुत्र है, एक पुत्री। राजा के यहां एक स्वर्ण-निर्मित कलश है। राजकुमारी स्वर्ण कलश को चाहती है। राजकुमार स्वर्ण-मुकुट चाहता है। वह कहता है-स्वर्ण कलश को तुड़वा दें, मेरे लिए इसका मुकुट बनवा दें। राजा राजकुमार का हठ पूरा करता है, कलश को तुड़वा देता है, मुकुट बनवा देता है। इसकी तीन प्रतिक्रियाएं होती हैं-कलश टूट जाने से राजकुमारी दुःखित होती है। मुकुट बन जाने से राजकुमार प्रमुदित होता है। राजा को इन दोनों स्थितियों में न दुःख होता है, न प्रमोद होता है। उसे तो केवल स्वर्ण चाहिए जो कलश रूप में था, अब वह मुकुट रूप में है।
घटमौलिः सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्। स्वर्ण एक पदार्थ है। वह द्रव्यात्मक दृष्टि से नहीं मिटता। उसका मूल स्वरूप अविच्छिन्न रहता है, केवल उसकी अवस्थाएं बदलती रहती है। स्वर्णकलश का नाश, मुकुट का उत्पाद एवं दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण बना रहा, स्वर्णत्व की हानि नहीं हुई। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण उत्पाद विनाश एवं ध्रुवता ये तीनों
व्रात्य दर्शन • २५
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