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धर्म अखण्ड वस्तु नहीं है उन सब धर्मों का संयुक्त रूप ही अखण्ड वस्तु है। उन अनन्त वस्तु स्वभावों को जानने के लिए अनन्त दृष्टियों की अपेक्षा होती है, क्योंकि एक दृष्टि वस्तु के एक पहलू को ही अभिव्यक्त कर सकती है। एक दृष्टिकोण से प्राप्त ज्ञान सम्पूर्ण सत्य नहीं है किन्तु सत्यांश है। सम्पूर्ण दृष्टियों का सामूहिक रूप ही सम्पूर्ण सत्य होता है। चिंतन की इस पद्धति का नाम अनेकान्त है। एकान्त दृष्टि हमें सत्य से भटका देती है।
चार व्यक्तियों ने एक मकान के विभिन्न दिशाओं से फोटो लिए। चारों ही फोटो चार प्रकार के थे। चारों व्यक्तियों में विवाद छिड़ गया। सभी ने अपने फोटो को सही और दूसरे को गलत ठहराया। लेकिन सच यह था कि उनमें से गलत किसी का भी फोटो नहीं था। विरोधी दिशाएं उनके विवाद का कारण बन गयी। एक दिशा से लिये गये फोटो में मकान का एक भाग ही अभिव्यक्त हो सकता है। चारों को मिलाकर देखने से विरोध स्वतः विलीन हो गया। वैसे ही हमारी एक दृष्टि वस्तु के एक कोण का ही संस्पर्श कर पाती है, फलतः वस्तु का सम्यक् बोध नहीं हो पाता। इस स्थिति में अनेक उलझने सामने आती है। उन दृष्टियों के समन्वय से समाधान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। अनेकान्त उन विरोधी दृष्टियों में समन्वय स्थापित करता है अतः अनेकान्त वस्तु के सही स्वरूप का बोध कराने में समर्थ है।
विरोध का समाहार
अनेकान्त एक ही वस्तु में नित्य-अनित्य आदि विरोधी धर्मों को स्वीकार करता है। श्री भिक्षुन्यायकर्णिका में अनेकान्त को परिभाषित करते हुये कहा गया-'एकत्र वस्तुनि विरोध्यविरोधीनामनेकधर्माणां स्वीकार अनेकान्तः।' एक ही वस्तु में विरोधी, अविरोधी अनेक धर्मों की स्वीकृति अनेकान्त है। एक ही वस्तु में एक साथ विरोधी धर्म कैसे रह सकते हैं, इसको हम उदाहरणों से समझ सकते हैं।
अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का अवस्थान तर्क संगत है। यथा-आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है। सामान्य विचार करने से प्राप्त होता है एक ही वस्तु दोनों कैसे हो सकती है? वह वस्तु या तो नित्य होनी चाहिए अथवा अनित्य। अनेकान्त के आलोक में इस प्रश्न का समाधान प्राप्त है।
नित्यता आत्मा का एक धर्म है। आत्मा शाश्वत है। आत्मा न कभी मिटी, न मिटती है और न मिटेगी। वह थी, है और रहेगी। उसका असंख्य प्रदेशात्मक स्वरूप हमेशा बना रहेगा। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होगा अतः
२४ + व्रात्य दर्शन
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