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यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यम्, इत्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशमनेकान्तः (आत्मख्याति १०/२४७)
वस्तु अनेक धर्मों का समुदाय मात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों का आधार है। वे अनेक धर्म परस्पर विरोधी है अतः द्रव्य का द्रव्यत्व बना हुआ है। विरोधी धर्मों के अभाव में द्रव्य का अस्तित्व ही सुरक्षित नहीं रह सकता। वस्तु की द्रव्य-पर्यायात्मकता
अस्तित्व विरोधी धर्म युगलों का समवाय है। अनेकान्त ने इस सत्य का दर्शन किया है। विरोधी युगलों के सह अस्तित्व की स्वीकृति के साथ ही उनके मध्य में रहे समन्वय सूत्रों का अन्वेषक भी अनेकान्त है। अस्तित्व द्रव्य-पर्यायात्मक है। द्रव्य की प्रधानता में द्रव्यार्थिक नय का मन्तव्य ठीक है पर्याय की प्रधानता में पर्यायार्थिक नय का मन्तव्य ठीक है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य एवं पर्याय दोनों की ही वास्तविक सत्ता है। अन्य एकान्तवादी दर्शन जहां द्रव्य एवं पर्याय में किसी एक को ही सत्य मानने का आग्रह करते हैं। उस अवस्था में अनेकान्त सत्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहता है कि सत्य उभयात्मक है। द्रव्यपर्यायात्मक है। अस्तित्व विरोधी धर्मयुक्त
द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, वाच्य और अवाच्य आदि विरोधी युगल विद्यमान है। उन सब में सह-अस्तित्व है। विरोधी और उनका सह-अस्तित्व विश्व-व्यवस्था का अटल नियम है। जैन दर्शन का यह मानना है कि जो सत है वह प्रतिपक्ष से युक्त होता है- 'यत् सत् तत् सप्रतिपक्षम्' पक्ष और प्रतिपक्ष में सह-अस्तित्व है। वे दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यह दार्शनिक सत्य अब वैज्ञानिक सत्य भी बन रहा है। वैज्ञानिक जगत् का प्रतिकण एवं प्रतिपदार्थ का सिद्धान्त अनेकान्त के आलोक में नये तथ्य उद्घाटित कर सकता है। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि प्रतिकण, कण का प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी उसका पूरक है। वे दोनों साथ-साथ रहते हैं। परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और इसमें क्रिया-प्रतिक्रिया का व्यवहार भी चलता है।
हर वस्तु एक क्षण में एक साथ सत-असत्, नित्य-अनित्य, वाच्य-अवाच्य आदि अनन्त विरोधी तथा अविरोधी स्वभावों को अपने में समेटे हुये हैं। एक-एक
व्रात्य दर्शन + २३
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