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३. अनेकान्त, स्याद्वाद एवं सप्तभंगी
जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा ण निव्वडइ।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स ॥ अनेकान्तवाद को नमस्कार है, क्योंकि उसके बिना इस संसार का व्यवहार भी संचालित नहीं हो सकता। अनेकान्त की अवधारणा निश्चय एवं व्यवहार दोनों के केन्द्र में है। अनेकान्त सम्पूर्ण जगत् का मार्गदर्शक है । उसके अभाव में दार्शनिक एवं व्यावहारिक दोनों ही प्रकार की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। __अनेकान्त जैन-दर्शन का प्राण तत्त्व है। अनेकान्त अर्थात् वस्तु को, सत्य को अनेक दृष्टिकोणों से देखना एवं समझना। वस्तु का यथार्थ मूल्यांकन वस्तु के किसी एक पक्ष पर प्रतिबद्ध न होते हुये समग्र दृष्टिकोण से उसका मूल्यांकन अनेकान्त के आलोक में ही हो सकता है। अनेकान्त की परिभाषा
जैन दर्शन में अनेकान्त पर अत्यधिक विचार-विमर्श किया है। अनेकान्त शब्द अनेक और अन्त इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। अनेक का अर्थ है-नानात्व एवं अन्त का अर्थ है-धर्म या स्वभाव। एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों को स्वीकार करना अनेकान्त है। एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं, यह अनेकान्त दर्शन की महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है।
अनेकान्त को परिभाषित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि एक ही वस्तु सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य स्वभाववाली है। ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित करने वाला अनेकान्त है।
२२ • व्रात्य दर्शन
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