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के ग्यारहवें 'बहुश्रुत पूजा' अध्ययन में प्राप्त बहुश्रुत की विशेषताओं तथा अविनीत के साथ प्रयुक्त अबहुश्रुत से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रुत शब्द मात्र ज्ञान का वाचक नहीं है। जो अविनीत है वह अबहुश्रुत है और जो विनीत है वह बहुश्रुत है। टीकाकार ने भी बहुश्रुतत्व एवं अबहुश्रुत्व में विनय एवं अविनय को मूल कारण माना है अतः सम्भव ऐसा लगता है कि बहुश्रुत शब्द में आगत श्रुत शब्द से ज्ञान एवं आचरण दोनों का ग्रहण हुआ है। जैनशिक्षा ग्रहण और आसेवनात्मक है। जैन परम्परा में कोरी ग्रहण शिक्षा को मूल्यवत्ता प्राप्त नहीं है। आसेवनयुक्त ग्रहण शिक्षा ही मूल्यवान है। बहुश्रुत की जीवनचर्या में आसेवन अग्रस्थानीय है। बहुश्रुत वह होता है जो ज्ञान एवं शील से सम्पन्न हो। बहुश्रुत के प्रकार
जैन साहित्य में बहुश्रुत के कई प्रकार बतलाये गये हैं। निशीथ-भाष्यचूर्णि के अनुसार बहुश्रुत तीन प्रकार के होते हैं
१. जघन्य बहुश्रुत-जो निशीथ का ज्ञाता हो। २. मध्यम बहुश्रुत-जो निशीथ और चौदह पूर्वो का मध्यवर्ती ज्ञाता हो। ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत-जो चतुर्दश-पूर्वी हो।
बहुश्रुत का मुख्य अर्थ चतुर्दशपूर्वी है। बृहत्कल्पभाष्य में जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार के बहुश्रुत का परिगणन है
तिविहो बहुस्सुओ खलु, जहण्णओ मज्झिमो उ उक्कोसो।
आयारकप्पे कप्प नवमदसमे य उक्कोसो ॥ १. जघन्य बहुश्रुत-आचार प्रकल्प अर्थात् निशीथ का धारक। २. मध्यम बहुश्रुत-कल्प एवं व्यवहार का धारक। ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत-नवें और दशवें पूर्व का धारक।
बहुश्रुत के प्रकारों का अवलोकन करने से ऐसा लगता है कि वहां बहुश्रुतता को मात्र ज्ञान के साथ जोड़ा गया है, उसके साथ आचार का कोई सम्बन्ध नहीं है किन्तु जैसा कि हमने पहले स्पष्ट किया था आचार के बिना बहुश्रुतता जैन परम्परा में मान्य नहीं है। 'बहुश्रुतपूजा' अध्ययन में आगत बहुश्रुत की विशेषताओं से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। बहुश्रुत की विशेषता
निर्मलता, जागरूकता, लब्धि-सम्पन्नता, भार-निर्वाहकता, दुष्प्रधर्षता, अपराजेयता २० • व्रात्य दर्शन
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