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अहंकार, क्रोध, प्रमाद, रोग एवं आलस्य इन पांच हेतुओं से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। अभिमानी व्यक्ति विनय नहीं करता, इसलिए उसे कोई नहीं पढ़ाता। क्रोधी व्यक्ति का संसर्ग कोई रखना नहीं चाहता अतः उसे शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती। प्रमाद, रोग एवं आलस्य भी शिक्षा में बाधक बनते हैं। शारीरिक स्वास्थ्य के अभाव में व्यक्ति विनम्रता आदि गुणों से युक्त होने पर भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता अतः विद्यार्थी के लिए शारीरिक स्वास्थ्य भी आवश्यक है। शिक्षा का दर्शन
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के अनुसार आज शिक्षा के सामने दो यक्ष प्रश्न है कि वह व्यक्ति को क्या मानती है और उसे क्या बनाना चाहती है। पूरा शिक्षा दर्शन इन दो प्रश्नों में समाहित हो जाता है। जैन शिक्षा पद्धति व्यक्ति में क्षायोपशमिक योग्यता अर्थात् अनावरण की योग्यता स्वीकार करती है। इसका उद्देश्य बौद्धिक सीमा का अतिक्रमण करके प्रज्ञा के क्षेत्र में अवतरण कराना है। वर्तमान शिक्षा पद्धति में व्यक्ति के शारीरिक एवं बौद्धिक विकास की तरफ प्रचुर ध्यान केन्द्रित किया गया है जबकि जैन शिक्षा दर्शन में इन दोनों विकासों के साथ मानसिक एवं भावनात्मक विकास को समुचित स्थान दिया गया है। वार्तमानिक जीवन-विज्ञान की पद्धति जैन शिक्षा का प्रतिरूप है ऐसा कहना शायद अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। व्यक्ति के सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास करना ही शिक्षा का उद्देश्य है। इसी में सम्पूर्ण शिक्षा दर्शन कृतार्थता को प्राप्त हो जाता है।
जैनशिक्षा दर्शन के अनुसार जिसका आवेगों/संवेगों पर नियन्त्रण होता है जिसमें मानसिक संकल्प की दृढ़ता होती है वह व्यक्ति शिक्षा की पूर्ण अर्हता से सम्पन्न है। उसका बौद्धिक एवं शारीरिक विकास जनमंगल के लिए होता है। जैन परम्परा के अनुसार सर्वांगीण व्यक्तित्व के धनी पुरुष को ही बहुश्रुत कहा जाता है। बहुश्रुत की परिभाषा
बहुश्रुत शब्द जैनपरम्परा का महत्त्वपूर्ण, बहुप्रतिष्ठित एवं प्रचलित शब्द है। जिसका श्रुत व्यापक एवं विशाल होता है उसे बहुश्रुत कहा जाता है। बहुश्रुत शब्द बहु और श्रुत इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। श्रुत शब्द ज्ञान का वाचक होता है किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में वह कोरे ज्ञान का वाचक नहीं है। उत्तराध्ययन
व्रात्य दर्शन • १६
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