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सम्बन्धी विचार यत्र-तत्र प्रकीर्ण रूप से उपलब्ध होते हैं पर अधुनातन भारतीयों की यह कमी रही है कि वे अपने प्राचीन ज्ञान भंडार को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत नहीं कर पाये अतः शिक्षा जगत् में शिक्षा का तरीका भारतीय न होकर पाश्चात्य है। आज की शिक्षा का moto है 'To learn to earn' जीविका के लिए पढ़ो किन्तु भारतीय चिंतन में जीविका कभी भी प्रमुख नहीं रही। उसका आदर्श है-How to live जीना कैसे चाहिए? इसमें पूरा शिक्षा दर्शन समाहित हो जाता है। शिक्षा प्राप्ति की अर्हता
शिक्षा प्राप्ति के अर्ह कौन है? शिक्षा गुरु के पास से कैसे प्राप्त करनी चाहिए? वर्तमान शिक्षा चिंतन में इन पहलुओं पर विचार ही नहीं किया गया है, परन्तु भारतीय मनीषियों ने शिक्षा प्राप्ति की अर्हता, अनर्हता पर पर्याप्त विचार किया है। व्यक्ति के आचरण के आधार पर शिक्षा प्राप्ति की योग्यता एवं अयोग्यता का निर्धारण होता है। प्राचीन शिक्षाविदों ने साहित्य शैली में शिक्षा के अयोग्य व्यक्ति का निरूपण किया है। विद्या ब्राह्मण से कहती है-हे ब्राह्मण ! मुझे असूयावान, कपटी तथा असंयमी व्यक्तियों से बचाना। मेरा उनके साथ कभी गठबन्धन मत कर देना। इसका तात्पर्य है कि ईर्ष्यालु, दंभी, असंयमी व्यक्ति शिक्षा प्राप्ति का अधिकारी नहीं है।
उत्तराध्ययन के 'बहुश्रुत पूजा' अध्ययन में शिक्षा प्राप्ति के अर्ह व्यक्ति का उल्लेख बहुत सुन्दर ढंग से किया है। वहां बताया गया कि आठ लक्षणों से युक्त व्यक्ति को शिक्षा प्राप्ति होती है। इन गुणों से रहित व्यक्ति शिक्षा के योग्य नहीं है। शिक्षा प्राप्ति के जिन आठ गुणों का उल्लेख किया गया है वे सारे व्यक्ति के चरित्र से जुड़े हुये हैं। वे आठ गुण निम्न हैं-१. जो हास्य नहीं करता। २. जो इन्द्रिय और मन का दमन करता है। ३. जो मर्म प्रकाशित नहीं करता। ४. जो चारित्रवान् होता है। ५. जो दुःशील नहीं होता। ६. जो रसों में अतिगृद्ध नहीं होता। ७. जो क्रोध नहीं करता। ८ जो सत्य में रत रहता है।
इन आठों में से एक भी लक्षण ऐसा नहीं है जो व्यक्ति की बुद्धि अथवा स्मृति से जुड़ा हुआ हो, इसका तात्पर्य यही है कि शिक्षा प्राप्ति की शर्त चारित्र है बुद्धि नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति यदि अच्छे चारित्रवाला नहीं है तो वह समस्याओं को उत्पन्न करने वाला ही होगा। इसीलिए भारतीय चिंतकों ने शिक्षा के अधिकारी की योग्यता का पहले निर्धारण किया है। 'वेदान्तसार' में ब्रह्मविद्या के अधिकारी
व्रात्य दर्शन • १७
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