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जो भाव अब तक नियत हुआ ही नहीं है उसको यदि सर्वज्ञ नियत रूप में जानने लगेगा तो उसका ज्ञान यथार्थता की सीमा का अतिक्रमण करनेवाला कहलायेगा। केवली में सम्यग्दर्शन नहीं होता
तत्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य में सम्यग्दर्शनी एवं सम्यग्दृष्टि को भिन्न-भिन्न माना गया है। भाष्य के अनुसार केवली सम्यग्दृष्टि होते हैं। सम्यग्दर्शनी नहीं होते। सम्यग्दर्शन में मतिज्ञान का भेद अपाय रहता है, केवली के ज्ञानावरण का सर्वथा नाश हो गया है। उनके अपायांश नहीं रहता अतः वे सम्यग्दर्शनी नहीं है।३४ इसका तात्पर्य हुआ बारहवें गुणस्थान तक के सम्यक्त्वी जीवों के सम्यग्दर्शन होता है उसके बाद के जीव सम्यग्दृष्टि तो कहलाते है किंतु सम्यग्दर्शनी नहीं कहलाते। इस अपेक्षा से केवली में सम्यग्दर्शन नहीं होता, यह वक्तव्य समीचीन
केवलज्ञान के संदर्भ में कतिपय बिन्दुओं पर विचार विमर्श किया गया और भी ऐसे बिंदु हो सकते हैं, जो केवलज्ञान की अवधारणा पर विशेष प्रकाश डाल सकते हैं।
संदर्भ
१. आचारांग ५/१०४ २. ज्ञानबिन्दु, पृ. १ 'केवलनाणमणंतं जीवसरूपं तयं निरावरणम्' । ३. प्रमाण-मीमांसा १/१५ तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्यं
केवलम्। ४. नंदी सूत्र ७१ सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिओ, ___ जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेण जीवो अजीवत्तं पाविज्जा। ५. आचारांग ३/७४ ६. समवायांग १/२ ७. आचारांग ५/१२३-२५ ८ आचारांग ३/७४ ६. आचारांग चूर्णि पृ. १२६ १०. नंदी, सूत्र ३३ ११. वही ३३/१ अह सव्वदव्वपरिणाम-भाव-विण्णत्ति कारणमणतं।
सासयमप्पपडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ॥
व्रात्य दर्शन . १३
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