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________________ इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में हो रहा है किंतु भगवती सूत्र के पांचवें शतक में छद्मस्थ एवं केवली की भिन्नता के सम्बन्ध में उपस्थापित प्रश्नों पर विमर्श करने पर प्राप्त होता है कि भगवती के उस प्रसंग में केवली और सर्वज्ञ एक नहीं है। वहां पर प्रश्न उपस्थित किया गया-क्या केवली शब्द आदि को इन्द्रियों से जानता है? समाधान प्रस्तुत करते हुये कहा गया कि 'केवली इन्द्रियों से नहीं जानता। वह सब दिशाओं में स्थित मित, अमित सबको जानता है क्योंकि उसके अनन्त ज्ञान एवं अनन्त दर्शन है। ये प्रश्न केवली और सर्वज्ञ को एक मानने पर उपस्थित करने आवश्यक नहीं थे। अन्य भारतीय दर्शनों में कैवल्य शब्द का प्रयोग कहीं भी सर्वज्ञता के अर्थ में नहीं हुआ है। अर्हत् आदि अर्थ में हुआ है। सांख्य दर्शन में प्रकृति से पृथक् पुरुष के लिए केवल शब्द का प्रयोग हुआ है। कैवल्य मुक्ति की अवस्था है, जिसमें पुरुष तीनों दुःखों से मुक्त होकर स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इस अवस्था में प्रकृति के तीनों गुण पुनः प्रकृति में ही अन्तर्लीन हो जाते हैं। योगदर्शन के अनुसार कैवल्य मानसिक संतुलन की स्थिति है, जहां मन अपनी चञ्चलता को छोड़ देता है। वेदान्त दर्शन के अनुसार ब्रह्म के साथ एकत्व होने का नाम कैवल्य है। उपर्युक्त दर्शनों में कैवल्य शब्द का सर्वज्ञता से कोई सम्बन्ध नहीं है। बौद्ध साहित्य में 'केवल' शब्द का प्रयोग एक एवं पूर्ण इन दोनों अर्थों में हुआ है। सुत्तनिपात की अट्ठकथा में केवली को सर्वगुण सम्पन्न, परिपूर्ण, सर्वशक्ति सम्पन्न एवं विषयमुक्त कहा है। बौद्ध साहित्य में अर्हत् के लिए केवली शब्द का प्रयोग हुआ है किंतु भूत, भविष्य एवं वर्तमान के सब पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञ के अर्थ में केवली शब्द का प्रयोग बौद्ध साहित्य में नहीं हुआ है। केवलज्ञान का परिपूर्ण ज्ञान के अर्थ में अर्थात् सर्वज्ञता के अर्थ में प्रयोग मात्र जैन साहित्य में ही उपलब्ध है। इससे संभव ऐसा लगता है कि जैन धर्म में भी केवली शब्द का प्रयोग वीतराग के लिए हुआ है किंतु वीतराग बनने के तत्काल बाद सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है अतः उन दोनों अवस्थाओं में स्थूल कालक्षेप न होने के कारण ये दोनों अवस्थाएं एक ही प्रतीत होती है अतः कालान्तर में जैन धर्म में केवली शब्द सर्वज्ञ का वाचन बन गया। केवली के मन होता है प्रज्ञापना सूत्र में केवली को नो संज्ञी एवं नो असंज्ञी कहा गया है।३० मन ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण के क्षयोपशम से होनेवाला ज्ञान है। केवली का ज्ञान व्रात्य दर्शन - ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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