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________________ है। ज्ञान की दृष्टि से द्वादशांगधर श्रुतज्ञानी की अपेक्षा केवली विशिष्ट है पर प्रज्ञप्ति की दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि केवलज्ञान स्वरूप प्रतिपादन में मुखर नहीं है। कामं खलु सव्वन्नू नाणेणाहिओ दुवालसंगीतो। पन्नतीइ उ तुल्लो केवलनाणं णओ मूअं ॥२५ केवली श्रुतज्ञान का अवलम्बन नहीं लेते श्रुतज्ञान पर प्रतिपादन पटु है। श्रुत भी उतने ही अर्थों का प्रज्ञापन कर सकता है जितने अर्थों का एक सर्वज्ञ कर सकता है। इसी समानता के कारण कभी-कभी भ्रमवश यह कह दिया जाता है कि केवली भी श्रुतज्ञान का सहारा लेते हैं किंतु यह कथन यथार्थ नहीं है नंदी, आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यक भाष्य में इस भ्रान्ति का निराकरण किया गया है। केवली को श्रुतज्ञान का अवलम्बन लेने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि केवलज्ञान क्षायिकज्ञान है, उसका उदय होने पर छाद्मस्थिक ज्ञानों का लोप हो जाता है। तीर्थंकर केवलज्ञान के द्वारा अर्थों को जानते हैं, उनमें जो प्रज्ञापन योग्य है उनका निरूपण करते हैं। वह उनका वचनयोग है, दूसरों के लिए वह द्रव्यश्रुत है। ___ केवलणाणेण त्थे नाउं जे तत्थ पन्नवणजोग्गे। ते भासइ तित्थयरो वइजोग सुयं हवइ सेसं ॥२६ केवली का वाग्योग श्रोताओं के भाव श्रुत का कारण बनता है, अतः पुंगलमय शब्द प्रयोग को भावश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत कहा जाता है। केवलज्ञान से श्रोता के भावश्रुत बनने की प्रक्रिया का आकार इस प्रकार बनता है-केवलज्ञान-अर्थावबोध-वचनयोग-शब्दोत्पत्ति (द्रव्यश्रुत)-भावश्रुत। जैन दर्शन के अनुसार वचनयोग का कारण नामकर्म का उदय और श्रुतज्ञान का कारण श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है। केवली के समस्त घाती कर्मों का सम्पूर्ण नाश हो जाने से उसके क्षायोपशमिक ज्ञानों का अभाव हो जाता है। नाम कर्म भवोपग्राही कर्म है अतः उसका उदय चौदहवें गुणस्थान तक चलता रहता है। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त की दृष्टि से भी यह स्पष्ट है कि केवली के वचनयोग होता है श्रुतज्ञान नहीं होता। केवली एवं सर्वज्ञ में भिन्नता वर्तमान में प्रचलित मान्यता के अनुसार जैन धर्म-दर्शन में केवली एवं सर्वज्ञ १०. व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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