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________________ केवली कहलाते हैं। श्रुत केवली,२० अवधिज्ञान-केवली, मनःपर्यायज्ञानकेवली और केवलज्ञानकेवली । इनमें श्रुतकेवली और केवलज्ञानकेवली का ज्ञेय विषय समान है। इनमें केवल जानने की पद्धति का अन्तर रहता है। श्रुत-केवली शास्त्रीय ज्ञान के माध्यम से तथा क्रमशः अपने ज्ञेय को जानता है जबकि केवलज्ञान केवली ज्ञेय पदार्थों को साक्षात् तथा एक साथ जानता है ।२२ श्रुतोपयोग की अवस्था में विशिष्ट श्रुतज्ञानी भी केवलज्ञानी के सदृश होता है। श्रुतकेवली शब्द श्रुतज्ञान की इसी अनन्तता का सूचक है। पूर्वो की अनन्त राशि को ही नहीं अपितु प्रत्येक अंगग्रन्थ को भी अनन्त गम (भंग-रचना) एवं अनन्तपर्यय वाला बताया गया है। इस प्रकार श्रुतज्ञान का विषय अनन्त हो जाता है। श्रुतज्ञान का मूल आधार अभिलाप्य पदार्थ है। अर्थ-पर्याय वाणी का विषय नहीं बनती है तथा सब व्यञ्जन पर्याय भी प्रज्ञापन योग्य नहीं है तथा जो भाव केवली द्वारा प्रज्ञापित किये जाते हैं उनका अनन्तवां भाग श्रुतनिबद्ध होता है। इस प्रकार शास्त्र निबद्ध श्रुतज्ञान की अपेक्षा केवलज्ञान का विषय अनन्तगुना अधिक होता है। केवलज्ञान एवं श्रुतज्ञान ये दो ही ऐसे ज्ञान हैं तो आत्म-साक्षात्कार एवं अमूर्त तत्त्वों का बोध करने में सक्षम हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रुतकेवली को केवली के समान लोक प्रदीपकर तथा आत्म स्वभाव का प्रज्ञापक कहा है।२३ जयसेनाचार्य ने अपनी तात्पर्य वृत्ति में केवलज्ञान को सूर्य एवं श्रुतज्ञान को दीपक की उपमा से उपमित किया है। केवलज्ञानी में सम्पूर्ण ज्ञान शक्ति अनावृत रहती है अतः वह द्रव्य की समस्त पर्यायों को जानता है और श्रुतज्ञान में उसका जितना देश अनावृत होता है उसके अनुसार प्रकाश स्वभावता विकसित होती है पर अर्थ अवबोध की दृष्टि से दोनों समतुल्य है।२४ __ आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान के समान ही सर्व तत्त्व प्रकाशक बताया है। उनके अनुसार स्याद्वाद और केवलज्ञान में ज्ञेयकृत भेद मुख्य नहीं है, मुख्यतः दोनों की जानने की प्रक्रिया भिन्न है। केवलज्ञान समस्त द्रव्यों एवं उसकी समस्त पर्यायों को जानता है वैसे ही स्याद्वाद भी जानता है। विशेषता यही है कि केवलज्ञान साक्षात् जानता है श्रुतज्ञान असाक्षात् रूप से जानता है। बृहत्कल्प भाष्य में केवलज्ञान एवं श्रुतज्ञान की तुलना करते हुये बताया गया कि जैसे समस्त ज्ञेय को केवलज्ञान अपरोक्ष रूप से यथार्थ जानता है वैसे ही श्रुतज्ञानी गीतार्थ भी उन्हें यथाश्रुत जान सकता है, प्रतिपादित कर सकता व्रात्य दर्शन - ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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