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हैं।१७ उपाध्यायजी का यह वक्तव्य आगमानुकूल है। आगम में केवलज्ञान को एक कहा गया है अर्थात् केवलज्ञान अकेला ही होता है उसके साथ अन्य क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं हो सकते। यही तथ्य तत्वार्थसूत्र में उल्लिखित है। केवल का अर्थ एक या असहाय होता है। ज्ञानावरण का विलय होने पर ज्ञान के अवान्तर भेद समाप्त हो जाने से ज्ञान एक हो जाता है।
श्रीमद् जयाचार्य ने इस अवधारणा को चांदी की चोकी के उदाहरण से स्पष्ट किया है। जैसे कोई चांदी की चौकी धूल से ढकी हुई है। उसके किनारों से धूल हटने लगी। एक कोना दिखा हमने एक चीज मान ली वैसे ही अन्य कोने दृग्गोचर होने पर चार पृथक् चीजे मानने लगे। जब चौकी के मध्य की धूल भी हट गयी तब वे चारों चीजे जिन्हें हम अलग मान रहे थे उसी में समा गयी। ठीक वैसे ही केवलज्ञान ढका रहता है तब तक उसके अल्प विकसित छोरों को भिन्न-भिन्न ज्ञान माना जाता है। जब ज्ञानावरण का सर्वथा विलय हो जाता है तब केवलज्ञान होता है और अन्य अपूर्ण ज्ञान उसमें ही विलीन हो जाते हैं। फिर आत्मा में सब द्रव्य और द्रव्यगत सब परिवर्तनों का साक्षात् करनेवाला एक ही ज्ञान रहता है जो केवलज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर अन्य मति आदि क्षायोपशमिकज्ञान का अस्तित्व ही नहीं रहता है क्योंकि उसके जनक केवलज्ञानावरण का अभाव हो जाने से उसके जन्य मति आदि ज्ञान का भी अभाव हो जाता है।
- आचार्य यशोविजयजी ने केवलज्ञानावरण के दो कार्य माने हैं-केवलज्ञान को आवृत करना एवं मति आदि को उत्पन्न करना। यह अवधारणा वेदान्त की माया जैसी है। माया में आवरण एवं विक्षेप नाम की दो शक्तियां होती हैं। माया आवरण शक्ति से ब्रह्म के स्वरूप को आच्छादित कर देती है और विक्षेप शक्ति के द्वारा मिथ्यारूप संसार को प्रस्तुत कर देती है। यद्यपि जैन दर्शन मति आदि ज्ञान के द्वारा ज्ञात प्रमेयों को भी मिथ्या नहीं मानता उनकी भी वास्तविक सत्ता है जबकि वेदान्त में ब्रह्म के अतिरिक्त सारे पदार्थ मिथ्या है।
___ मति आदि ज्ञान वस्तुतः तो केवलज्ञान के ही भेद हैं। आवरण दशा में केवलज्ञान मति आदि रूप में प्रकट होता है तथा चेतना के निरावरण हो जाने पर केवलज्ञान अपने वास्तविक स्वरूप में आविर्भूत हो जाता है। केवलज्ञान एवं श्रुतज्ञान की समानता
जैन ज्ञान परम्परा में मतिज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान के अधिकारी
८. व्रात्य दर्शन
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