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________________ अभिमत है ज्ञान से वीतरागता होगी। ___जैन दर्शन के अनुसार सर्वज्ञता के लिए वीतरागता अनिवार्य है। सम्पूर्ण क्लेशावरण के दूर होने पर ही सम्पूर्ण ज्ञेयावरण दूर हो सकता है। जैन परम्परा में क्लेशावरण अर्थात् मोह के नाश हो जाने पर ज्ञानावरण दर्शनावरण एवं अन्तराय कर्म को अनिवार्यतः नष्ट होना पड़ेगा। मोह कर्म के अभाव में वे नहीं रह सकते। अन्य भारतीय परम्पराओं में क्लेशावरण के दूर हो जाने पर ज्ञेयावरण का नाश होना आवश्यक नहीं है। किंतु जैन परम्परा में क्लेशावरण के नाश के बाद ज्ञेयावरण का नाश अनिवार्य है। केवलज्ञान अकेला होता है ___ आत्मा चेतना स्वभाव है। संसारी अवस्था में उस पर कर्म का आवरण रहता है जो चेतना-शक्ति को पूर्ण रूप से कार्य करने में रोकता है। यह आवरण पूर्णज्ञान का प्रतिबन्धक होने से केवलज्ञानावरण कहलाता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने केवलज्ञानावरण को पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान का प्रतिबन्धक माना है किंतु इसके साथ ही उसे अपूर्ण ज्ञानों का जनक भी स्वीकार किया है। जैन परम्परा में मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यव ये चार अपूर्ण ज्ञान माने गये हैं तथा उनके मतिज्ञानावरण आदि चार पृथक आवरण भी माने जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में एक जिज्ञासा स्वतः ही उपस्थित होती है कि केवलज्ञानावरण को अपूर्ण ज्ञानों का जनक कैसे माना जा सकता है? उपाध्याय यशोविजयजी ने इसका समाधान शास्त्र सम्मत कहकर दिया है। जैन परम्परा में ज्ञान के सम्बन्ध में एक पक्ष यह भी रहा है कि जैसे केवलज्ञानावरण के हट जाने पर केवलज्ञान प्रकट होता है वैसे ही मतिज्ञानावरण आदि के हट जाने से मति आदि ज्ञान भी उत्पन्न होते हैं अतः केवली में केवलज्ञान के साथ अन्य मति आदि ज्ञान भी रहते है किंतु वे केवलज्ञान से अभिभूत हो जाने के कारण उस अवस्था में कार्यकारी नहीं होते हैं जैसे सूर्य के उदित होने पर तारासमूह अस्तित्व में रहते हुये भी निष्प्रभावी बन जाता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने इस मन्तव्य का यौक्तिक निराकरण किया है। उन्होंने अपनी युक्ति प्रस्तुत करते हुए कहा कि अपूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानावरण का ही कार्य है। उन अपूर्ण ज्ञानों में भी परस्पर वैविध्य एवं तारतम्य रहता है वह मतिज्ञानावरण आदि के क्षयोपशम से होता है किंतु अपूर्ण ज्ञानावस्था केवलज्ञानावरण के कारण ही होती है अतः जब केवली के केवलज्ञानावरण का विनाश हो जाता है तब उसमें केवलज्ञानावरण जन्य मति आदि अपूर्ण ज्ञान भी नहीं हो सकते व्रात्य दर्शन - ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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