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सर्वज्ञता की उत्पत्ति का क्रम सब दर्शनों में समान ही है। इसका अवबोध निम्न तालिका के माध्यम से प्राप्त हो जाता है६
जैन बौद्ध सांख्य-योग न्याय-वैशेषिक वेदान्त १. सम्यक्दर्शन १. सम्यग्दृष्टि १. विवेकख्याति १. सम्यग्ज्ञान १. सम्यग्दर्शन २. क्षपक श्रेणी २. रागआदि २. प्रसंख्यान- २. रागआदि २. रागआदि द्वारा रागादि क्लेशों के सम्प्रज्ञात के हास के ह्रास कषायों के ह्रास का समाधि का का प्रारम्भ का प्रारम्भ ह्रास का प्रारम्भ प्रारम्भ प्रारम्भ ३. शुक्लध्यान ३. भावना के ३. असम्प्रज्ञात- ३. असम्प्रज्ञात ३. भावना
के बल से राग बल से क्लेशा- धर्ममेघ धर्ममेघ निदिध्यासन आदि दोष का वरण का समाधि के द्वारा समाधि के के बल से आत्यन्तिक क्षय आत्यन्तिक राग आदि द्वारा राग क्लेशों का क्षय क्लेश कर्म की आदि क्लेश क्षय
आत्यन्तिक कर्म की आत्यन्तिक
निवृत्ति निवृत्ति ४. ज्ञानावरण ४. भावना के ४. प्रकाशावरण ४. समाधि- ४. ब्रह्म
के सर्वथा नाश प्रकर्ष से के नाश द्वारा जन्य धर्म साक्षात्कार द्वारा सर्वज्ञत्व ज्ञेयावरण के सर्वज्ञत्व की द्वारा सर्वज्ञत्व के द्वारा की प्राप्ति सर्वथा नाश से प्राप्ति की प्राप्ति अज्ञान आदि सर्वज्ञत्व की प्राप्ति
का विलय सर्वज्ञता एवं वीतरागता
सर्वज्ञता जैन दर्शन का लक्ष्य नहीं है। वीतरागता की प्राप्ति ही उसमें मुख्य है। वीतरागता के बिना ज्ञान वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता। जब तक मोह रहेगा ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ बना रहेगा। यदि वीतरागता रहित सर्वज्ञता की परिकल्पना की जाये तो दो सर्वज्ञों का ज्ञान एक जैसा नहीं हो सकता। मोह के अभाव के बिना निष्पक्षता नहीं आ सकती अतः सर्वज्ञता से पूर्व वीतरागता अनिवार्य है। जैन दर्शन का प्रारम्भ बिन्दु मुमुक्षा है और उसका साध्य वीतरागता है। सर्वज्ञता प्रासंगिक रूप में वहां फलित होती है। वेदान्त दर्शन के अनुसार जिज्ञासा साधना का प्रारम्भ बिन्दु है 'अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा' और सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति साध्य है। उनका मंतव्य है कि जब ज्ञान पूर्ण होगा तो दोष का अभाव हो ही जायेगा। यद्यपि दोनों का निष्कर्ष एक जैसा है। एक का मानना है वीतरागता से ज्ञान तथा दूसरे का ६ . व्रात्य दर्शन
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