SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति का कारण बनती है। जैन के अनुसार शुक्लध्यान केवलज्ञान का कारण बनता है। अर्हत्, बुद्ध, जीवनमुक्त को भारतीय दर्शन में सर्वज्ञ अर्थात् पूर्णज्ञानी माना गया है। मुक्तावस्था आत्मा की सर्वोत्कृष्ट पूर्णता है। उस अवस्था में आत्मा में किसी भी वस्तु की न्यूनता नहीं रहती, ज्ञान भी परिपूर्ण हो जाता है। अतः उस अवस्था में सर्वज्ञता की भारतीय दर्शन में स्वाभाविक स्वीकृति है। सर्वज्ञता एवं मुक्ति मूल्यपरक सिद्धान्त है। भारतीय दर्शन मूल्य आधारित दर्शन है। सर्वज्ञता एवं मुक्ति मनुष्य का उद्देश्य है। साधना के पथ पर चलकर मनुष्य अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो सकता है। केवलज्ञान के उत्पादक कारण मीमांसा दर्शन को छोड़कर प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने सर्वज्ञता स्वीकार की है। अपनी परम्परा में मान्य सम्पूर्ण तत्त्वों का साक्षात्कार करने वाले को ही विभिन्न परम्परायें सर्वज्ञ मानती है। इन दार्शनिक परम्पराओं में सर्वज्ञ के उत्पादक कारणों का वैविध्य है। केवलज्ञान के उत्पादक कारण अनेक हैं, जैसे-भावना. अदृष्ट, विशिष्ट शब्द एवं आवरणक्षय । इन कारणों में विभिन्न दार्शनिकों ने किसी कारण को केवलज्ञान की उत्पत्ति में मुख्य एवं अन्य को गौण बताकर उसके पृथक्-पृथक् कारण उपस्थित किये हैं। उदाहरणार्थ-सांख्य-योग और बौद्ध केवलज्ञान के जनक के रूप में भावना का प्रतिपादन करते हैं। न्याय एवं वैशेषिक दर्शन योगज अदृष्ट को केवलज्ञान का जनक मानते हैं। वेदान्त दर्शन के अनुसार 'तत्वमसि' जैसे महावाक्य केवलज्ञान के जनक है। जैन दर्शन ज्ञान के आवरण रूप कर्म के क्षय होने से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति मानता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने केवलज्ञान के जनक के रूप में कर्मक्षय को ही कारण माना है, अन्य भावना आदि पक्षों का उन्होंने निरास किया है। वस्तुतः सर्वज्ञ की उत्पत्ति में अव्यवहित कारण कर्मक्षय ही है। भावना जो शुक्लध्यान का ही नामान्तर है, वह केवलज्ञान की उत्पत्ति में सहायक अवश्य बनती है किंतु वह व्यवहित कारण है। भावना से कर्मक्षय होता है तथा कर्मक्षय से केवलज्ञान प्राप्त होता है। अतः भावना कर्मक्षय में कारण होने की अपेक्षा से सर्वज्ञता की उत्पत्ति में अप्रधान कारण ही है। इसी प्रकार अदृष्ट, विशिष्ट शब्द आदि केवलज्ञान की उत्पत्ति में सहकारी कारण बन सकते हैं कितु उसके साक्षात कारण नहीं है। साक्षात कारण तो कर्मक्षय ही है। व्रात्य दर्शन • ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy