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२. औदारिक मिश्र काययोग ३. वैक्रिय काययोग ४. वैक्रिय मिश्र काययोग ५. आहारक काययोग ६. आहारक मिश्र काययोग ७. कार्मण काययोग
कार्मण का मिश्रयोग औदारिक मिश्र आदि में ही समाविष्ट हो जाता है किंतु उपर्युक्त वर्गीकरण में कहीं भी तैजस काययोग का उल्लेख नहीं है। इसका तात्पर्य है कि तैजस शरीर की किसी प्रकार की स्वतन्त्र प्रवृत्ति नहीं होती है अतः इसका स्वतंत्र काययोग नहीं है। यह शरीर शक्ति रूप है। अन्य शरीरों को यह शरीर शक्ति प्रदान करता है। इसकी सहायता से ही अन्य शरीर प्रवृत्ति करते हैं अतः तैजस का काययोग स्वतन्त्र नहीं है, सब योगों में उसका समावेश होता है। कार्मण शरीर
कार्मण शरीर सूक्ष्मतम होता है। यह शरीर अन्य शरीरों का आधारभूत होता है। इसके नाश हो जाने पर अन्य शरीर नियमतः नष्ट हो जाते हैं। यह सभी संसारी प्राणियों के होता है। कार्मण वर्गणा के सूक्ष्मतम परमाणुओं से इस शरीर का निर्माण होता है। अन्य शरीरों का कारण होने से इसे कारण शरीर भी कहा जा सकता है। यह कर्म से निर्मित है तथा सम्पूर्ण कर्मराशि का आधार स्थल है। कुछ आचार्य कर्म को ही कार्मण शरीर कहते हैं। किंतु कर्म और कार्मण शरीर एक नहीं हो सकते। वे परस्पर भिन्न हैं। कर्म की उत्पत्ति बंधननामकर्म एवं मोहकर्म के निमित्त से होती है, जबकि कार्मण शरीर का विपाक कार्मण शरीर को ही परिपुष्ट करता है। इन हेतुओं से कर्म एवं कार्मण शरीर को सर्वथा एक नही माना जा सकता किंतु शरीर नाम कर्म की प्रकृति भी कोई कर्मों से भिन्न तो है नहीं इस अपेक्षा से कर्म ही कार्मण शरीर हैं यह वक्तव्य भी समीचीन हो जाता है। इस प्रसंग में अनेकांतदृष्टि ही आश्रयणीय है।
शरीर की क्रम व्यवस्था
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस एवं कार्मण शरीरों का यह क्रम भी सलक्ष्य रखा गया है। स्वल्प पुद्गलों से निष्पन्न एवं बादर परिणति वाला होने के कारण औदारिक शरीर का प्रथम न्यास किया गया है। वैक्रिय आदि क्रमशः बहु, बहुतर
व्रात्य दर्शन • २०७
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