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________________ एवं बहुतम पुद्गलों से निष्पन्न एवं सूक्ष्म, सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम परिणति होने से उनका क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे एवं पांचवें स्थान पर न्यास किया गया है। पांचो ही शरीरों की क्रम व्यवस्था का मुख्य हेतु है-इनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और प्रदेशों की बहुलता। जीव और शरीर का सम्बन्ध जैन दर्शन के अनुसार जीव और शरीर का सम्बन्ध अनादिकाल से है। जब तक जीव संसारी है तब तक तैजस एवं कार्मण शरीर तो निरन्तर जीव से संलग्न रहेंगे। जीव और इन दो शरीरों की सम्बन्धता द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा से ही है क्योंकि प्रवाह रूप से ये दो शरीर निरन्तर जीव के साथ रहते हैं किंतु पर्यायास्तिक नय की अपेक्षा इनका जीव के साथ सादि सम्बन्ध है क्योंकि सवसे अधिक दर्शन मोह कर्म की स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है उसके पश्चात् तो उसको बदलना ही पड़ता है। जीव और शरीर का सम्बन्ध कौन-से समय में हुआ यह नहीं बताया जा सकता अतः यह सम्बन्ध अनादि है तथा बीज और वृक्ष की तरह, मुर्गी एवं अण्डे की तरह इनमें पौर्वापर्य भी नहीं बताया जा सकता अतः जीव एवं शरीर का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्विक है। कुछ आचार्य कार्मण शरीर का ही जीव के साथ अनादि सम्बन्ध मानते हैं। उनके अनुसार तैजस शरीर तो लब्धि सापेक्ष है तथा वह तैजस लब्धि सबके नहीं होती अतः तैजस शरीर का जीव के साथ अनादि सम्बन्ध नहीं है।३० औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक इन तीन शरीरों का जीव के साथ सादि सम्बन्ध है। कर्मों के अनुसार गति विशेष में जीव कभी औदारिक या वैक्रिय शरीर को प्राप्त करता है तथा आहारक शरीर तो कदाचित् ही कुछ जीवों के होता है। लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर भी कुछ ही जीवों के कदाचित् होता है अतः इन तीन शरीरों का सम्बन्ध जीव के साथ सादि है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि संसार के सभी प्राणी सर्वप्रथम अव्यवहार राशि में ही रहते हैं अव्यवहार राशि के जीवों की तिर्यञ्च गति है। अतः उस अवस्था में उन जीवों के औदारिक शरीर ही होता है, वैक्रिय नहीं होता। पहला औदारिक शरीर जीव को कब प्राप्त हुआ था, इसका समाधान देना अशक्य है अतः इस अपेक्षा से औदारिक शरीर का भी जीव के साथ अनादि सम्बन्ध माना जा सकता है। २०८ • व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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