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केवलज्ञान की परिभाषा
जो ज्ञान सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव को जानता देखता है, वह केवलज्ञान है। जो सब द्रव्यों, उनके परिणामों को जानता है, अनंत, शाश्वत, अप्रतिपाति और एक प्रकार का है, वह केवलज्ञान है। आचार्य कुन्द-कुन्द ने निश्चय एवं व्यवहार नय के आधार पर केवलज्ञान को परिभाषित किया है। उनके अनुसार केवली भगवान व्यवहार नय से सब कुछ जानते हैं तथा निश्चय नय से वे मात्र अपनी आत्मा को जानते हैं।१२ केवलज्ञान का सर्वज्ञायकत्व स्वभाव सभी जैन चिंतको को मान्य रहा है। शब्दान्तर से वे इसी भाव को अपने-अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत करते हैं। तत्त्वार्थभाष्य में केवलज्ञान के स्वरूप का विस्तृत विवेचन हुआ है। केवलज्ञान सब भावों का ग्राहक, सम्पूर्ण लोक और आलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी अन्य कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो।१३ केवलज्ञान के भेद
नंदी सूत्र ३३/१ में केवलज्ञान को एक प्रकार का कहा है। उसके भेद नहीं होते किंतु उसी नंदी सूत्र के सूत्र २६ से ४२ तक के सूत्रों में भवस्थ केवलज्ञान एवं सिद्धकेवलज्ञान ये दो मुख्य भेद करके उनके भेद, प्रभेदों का उल्लेख किया है। इन दोनों वक्तव्यों पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि इनमें विरोध नहीं है। केवलज्ञान एक प्रकार का होता है इसका तात्पर्य है कि वह सब जीवों के एक जैसा होता है उसके स्वरूप में कोई भेद नहीं है तथा वह अनेक प्रकार का है यह वक्तव्य केवलज्ञान के धारक की अपेक्षा से है। यदि केवलज्ञान संसार में स्थित पुरुष के है तो वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है तथा मुक्त जीव के होता है तब सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है, ऐसे ही अन्य भेद भी हो जाते हैं।
नंदी में प्राप्त भवस्थ केवलज्ञान एवं सिद्ध केवलज्ञान ये केवलज्ञान के दो भेद सापेक्ष है।१४ मीमांसक दर्शन का अभिमत है कि मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता और वैशेषिक मत का अभ्युपगम है कि मुक्त जीव में ज्ञान नहीं होता। ये दोनों अभिमत जैन दर्शन को स्वीकार्य नहीं है। भवस्थ केवलज्ञान इस स्वीकृति का सूचक है कि मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। सिद्ध केवलज्ञान इस स्वीकृति का सूचक है, कि मुक्त आत्मा में केवलज्ञान विद्यमान रहता है। शरीर की प्रवृत्ति और केवलज्ञान में कोई विरोध नहीं है, इस तथ्य की सूचना सयोगी भवस्थ केवलज्ञान से प्राप्त होती है।१५
व्रात्य दर्शन -३
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