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का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन, भगवती, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, कषाय-पाहुड़ आदि ग्रंथों से लेकर अब तक के साहित्य में सर्वज्ञता का विमर्श होता रहा है।
सर्वज्ञता की तार्किकता
आगम युग में सर्वज्ञता का वर्णन केवलज्ञान के रूप में होता रहा। केवलज्ञान की सिद्धि में वहां तर्क का सहारा नहीं लिया गया और यह उचित भी था क्योंकि स्वभाव कभी तर्क का विषय नहीं बन सकता। स्वभावोऽतर्कगोचरः। आगमकार को इस बात का अनुभव था कि आत्मा के उस केवल ज्ञानमय विशुद्ध स्वरूप को शब्द, तर्क एवं बुद्धि का विषय नहीं बनाया जा सकता अतः आचारांग स्पष्ट उद्घोषणा करता है- 'सव्वे सरा णियटृति, तक्का जत्थ ण विज्जइ, मई तत्थ ण गाहिया।
दार्शनिक युग में सर्वज्ञता को भी तर्क के क्षेत्र में लाया गया। उसके पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क उपस्थित किये गये। यहां उस दार्शनिक विमर्श का आलोड़न सम्भव नहीं है, किंतु एक तर्क जो जैन-परम्परा में सर्वज्ञता के सम्बन्ध में प्रचलित रहा है उसका विमर्श यहां किया जा रहा है।
जैन विचार-धारा के अनुसार एक वस्तु संसार की अन्य समस्त वस्तुओं से किसी-न-किसी रूप में जुड़ी हुई है। अन्य वस्तुओं से जो वस्तु का सम्बन्ध है, वह उस वस्तु के पर्याय हैं। एक वस्तु को पूर्णतया जानने का अर्थ-इन सारे सम्बन्धों को जानना। इसका तात्पर्य यह है कि जो एक वस्तु को समग्रता से जानता है, वह सम्पूर्ण वस्तुओं को भी समग्रता से जानता है। यदि ये सारे सम्बन्ध वास्तविक है तथा इन सबको जाना जा सकता है तो सर्वज्ञता की तार्किक सिद्धि हो जाती है। 'आचारांग' में कहा गया
जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ।
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ आचारांग चूर्णिकार ने इसी तथ्य को विश्लेषित करते हुए कहा कि एक परमाणु का ज्ञान भी समस्त वस्तुओं के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। द्रव्य की त्रैकालिक पर्यायों को जानने वाले व्यक्ति का ज्ञान इतना विकसित होता है कि उसमें सब द्रव्यों को जानने की क्षमता होती है। जिसमें सब द्रव्यों को जानने की क्षमता होती है, वही वास्तव में एक द्रव्य को जान सकता है।
२ . व्रात्य दर्शन
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