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________________ १. केवलज्ञान : कतिपय विमर्शनीय बिन्दु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञान का अधिकरण नहीं है किंतु वह स्वयं ज्ञान-स्वरूप है-'जे आया से विण्णाया" आत्मा स्वभाव से ही ज्ञान स्वरूप है। सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है। इसीलिए कहा जाता है कि चेतन आत्मा का जो निरावरण स्वरूप है, वही केवलज्ञान है। आत्मा का यह ज्ञान-स्वभाव संसारी अवस्था में कर्म के आवरण से आवृत रहता है फलस्वरूप चेतना-शक्ति को पूर्ण एवं स्वतंत्र रूप में कार्य करने में बाधा उपस्थित होती रहती है। आवरण की सघनता एवं विरलता के कारण वद्ध-आत्मा में ज्ञान का तारतम्य बना रहता है। यह स्पष्ट है कि आवरण कितना ही सघन क्यों न हो किंतु वह आत्मा की ज्ञान शक्ति को सर्वथा नष्ट नहीं कर सकता। मेघ-समूह सूर्य को कितना ही आच्छादित क्यों न करे, किंतु दिन-रात का विभेद तो बना ही रहता है। वैसे ही अक्षर का अनन्तवां भाग सब जीवों में नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह आवृत हो जाए तो जीव अजीवत्व को प्राप्त हो जाता है। जैन परम्परा में सर्वज्ञता की अवधारणा प्रारम्भ से ही रही है। धर्म-दर्शन का आधार आप्त-पुरुषों की वाणी है। ईश्वर के दूत पैगम्बर की वाणी होने से कुरान को प्रामाणिक माना जाता है। बाइबिल ईश्वर के पुत्र की वाणी होने से प्रामाणिक है किंतु जैन दर्शन में ईश्वर, ईश्वर दूत अथवा ईश्वर पुत्र के अस्तित्व की अवधारणा नहीं है। जैन के समक्ष यह प्रश्न तो उपस्थित था ही कि वह अपने धर्म ग्रंथों का प्रामाण्य किस आधार पर मानता है। जैन ने इस प्रश्न का समाधान सर्वज्ञता के आधार पर किया। राग-द्वेष से मुक्त तथा परिपूर्ण ज्ञान से युक्त आप्त के वचन प्रमाण है। जैन धर्म के सर्वाधिक प्राचीन माने जाने वाले आचारांग सूत्र में भी सर्वज्ञता की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख है। 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ ।'५ 'सव्वं जाणइ' सर्वज्ञता का द्योतक है। समवायांग सूत्र में महावीर के लिए सर्वज्ञ शब्द व्रात्य दर्शन - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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