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________________ अन्तर्वीपज मनुष्यों को म्लेच्छ ही माना है तथा कर्मभूमिज दोनों प्रकार के हैं।२६ अकर्मभूमि के मनुष्यों के बारे में उल्लेख नहीं है। प्रज्ञापना में ऋद्धिरहित आर्यों का विस्तारपूर्वक कथन है, सर्वार्थसिद्धि में उनका नामोल्लेख मात्र है। अन्तर्वीपज मनुष्यों में जाति, कुल आदि की व्यवस्था नहीं होती है तथा वहां के लोग कर्म, शिल्प आदि का प्रयोग भी नहीं करते हैं क्योंकि वहां पर असि, मसि एवं कृषि से आजीविका नहीं होती है, कल्पवृक्षों के माध्यम से ही वे लोग अपना जीवनयापन करते हैं। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना का भी भोगभूमि होने के कारण अवकाश नहीं है। आर्य की अवधारणा में कर्म, शिल्प, जाति, कुल आदि ही मुख्य हेतु बनते हैं। अन्तर्वीपों में इनका अभाव है अतः संभव है इसी हेतु से ग्रंथकारों ने अन्तर्वीपज मनुष्यों को म्लेच्छ ही माना है। __ प्रज्ञापना एवं सर्वार्थसिद्धि की तरह ही तत्वार्थवार्तिक में भी ऋद्धिप्राप्त एवं ऋद्धिरहित-ये दो आर्यों के भेद हैं। आर्यों के भेदों के संदर्भ में वार्तिककार ने पूज्यपाद का अनुगमन किया है। यद्यपि ऋद्धिप्राप्त आर्यों के सर्वार्थसिद्धि ने सात भेद किये हैं जबकि वार्तिक में उनके आठ भेद किये गये हैं।२७ वार्तिक में क्रिया नाम के आर्य का अधिक कथन है तथा सर्वार्थसिद्धि में आगत अक्षीण के स्थान पर यहां क्षेत्र शब्द का प्रयोग हुआ है। वार्तिक में क्षेत्रर्द्धि आर्य के विवेचन में अक्षीण महानस एवं अक्षीण महालय का ही विवेचन है। इससे प्रतीत होता है कि सर्वार्थसिद्धि में प्रयुक्त अक्षीण शब्द का प्रयोग अधिक संगत है क्योंकि क्षेत्रर्द्धि में क्षेत्र से सम्बन्धित चर्चा नहीं है। उसका उल्लेख तो क्षेत्रार्य में ही हो गया है। तत्वार्थवार्तिक में कुलार्य का समावेश जात्यार्य में ही किया गया है। प्रज्ञापना में कार्य एवं शिल्पार्य का पृथक्-पृथक निर्देश है जबकि वार्तिक में कार्य का ही उल्लेख है। तत्वार्थवार्तिक के अनुसार कार्य तीन प्रकार के होते हैं-१. सावद्य कार्य, २. अल्पसावध कार्य एवं ३. असावध कार्य। असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक कर्म करने वाले सावध कार्य हैं। श्रावक और श्राविकाएं अल्प सावध कार्य हैं। संयमी मुनि असावद्य कार्य हैं। इस ग्रन्थ में सावध कर्मों का तो उल्लेख हुआ है किन्तु अल्प सावध कर्म कौन-से हैं? उनका उल्लेख नहीं है। साधु की सारी चर्या निरवद्य होती है अतः उन्हें असावद्य कर्मार्य कह दिया गया है किंतु श्रावक तो अपने जीवन निर्वाह के लिए व्यापार आदि करते हैं तथा जिनका सावद्यकर्म के रूप में वर्णन हैं वे ही आजीविका के प्रचलित साधन थे तब उनका ही प्रयोग करने वाले श्रावक अल्प सावध कार्य कैसे हुए? संभव ऐसा लगता है कि आजीविका के साधन तो वे व्रात्य दर्शन • १६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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