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ही थे जिनका उल्लेख सावध कर्म के अन्तर्गत हुआ है किंतु श्रावक संयमासंयमी होते हैं अतः इन कार्यों को करते हुए भी विवेक से कम-से-कम हिंसा करते होंगे अतः उनके अल्प सावद्य कमार्य कहा गया है। वार्तिक इसी अवधारणा को सम्पुष्ट करता है।६ प्रज्ञापना में कार्य अनेक प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। जो वस्त्र, सूत्र (धागा) कपास, बंजारा और मिट्टी के बर्तन आदि का व्यापार करते हैं वे कार्य हैं।३० तुन्नवाय, तन्तुवाय आदि को प्रज्ञापना में शिल्पार्य कहा गया है।"
सम्यक्ज्ञानी, सम्यक्दर्शनी और सम्यक्चारित्री को क्रमशः प्रज्ञापना आदि ग्रंथों में ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य कहा गया है। ज्ञानार्य का उल्लेख मात्र प्रज्ञापना में है।
प्रस्तुत ग्रंथों में आर्य की अवधारणा का विवेचन सापेक्ष दृष्टि से ही हुआ है। ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य इन तीन पदों का सम्बन्ध धार्मिक जगत् से है। जिन्हें सम्यक् दर्शन आदि रूप रत्नत्रयी प्राप्त हैं वे आर्य हैं जिन्हें यह रत्नत्रयी प्राप्त नहीं है वे सब अनार्य हैं, भले फिर वे किसी भी क्षेत्र, जाति या कुल में जन्मे हों, कौन-सा भी कार्य करते हों और किसी भी भाषा को बोलते हों। आर्यों के शेष विभाग भौगोलिकता, आजीविका, जाति और भाषा के आधार पर किये गये हैं। तीर्थंकर आदि की उत्पत्ति के कारण साढ़े पच्चीस क्षेत्रों को जैनाचार्यों ने आर्य क्षेत्र कहा है तथा इन प्रदेशों में श्रमण परम्परा या जैनधर्म का व्यापक वर्चस्व रहा, इसीलिए भी सम्भव है इन्हें आर्य जनपद कहा गया है। ____ अम्बष्ठ आदि उस समय की धनाढ्य जातियां थीं इसलिए इन्हें आर्य कहा गया है। उग्र, भोग आदि कुल आदिनाथ ऋषभ के समय में स्थापित हुए थे इसलिए प्रधानतया उन्हीं को आर्य कहा गया है।३२
ऋग्वेद में आर्य और आर्येतर ये दो विभाग मिलते हैं। अनार्य जातियों में अनेक सम्पन्न जातियां थीं। उनकी अपनी सभ्यता और संस्कृति थी। अपनी सम्पदा और धार्मिक मान्यताएं थीं।३३ जब वे आर्यों से मिले तब उनमें परस्पर बहत भेद था। क्रमशः वे परस्पर घुल-मिल गये। आर्य विजेता बने इसलिए वे अपने को श्रेष्ठ मानते थे तथा आर्येतर जातियां पराजित हुईं इसलिए उन्हें हीन माना जाने लगा। कालान्तर में आर्य-अनार्य का जातिगत अर्थ अपने संकुचित अर्थ को छोड़कर क्रमशः श्रेष्ठ एवं अश्रेष्ठ अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जैन परम्परा में आर्य-अनार्य शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से श्रेष्ठ एवं अश्रेष्ठ अर्थ में ही हुआ है।
प्रज्ञापना में वर्णित आर्य विमर्श के द्वारा हमें तात्कालिक समाज व्यवस्था एवं आजीविका के मुख्य संसाधनों का भी अवबोध प्राप्त होता है। प्रज्ञापना के
१६६ - व्रात्य दर्शन
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