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के मनुष्य किरूप है इसका उल्लेख उपलब्ध नहीं किंतु अन्तर्वीपज मनुष्यों को म्लेच्छ ही माना गया है। प्रज्ञापना में अकर्मभूमि एवं अन्तीपज दोनों के ही सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त नहीं है।
प्रज्ञापना में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव का परिगणन ऋद्धिप्राप्त आर्य के रूप में किया गया। तत्वार्थभाष्य इनका परिगणन कुलार्य में करता है। कुलकर, कुलकरों के वंश में उत्पन्न तथा जो विशुद्ध वंश एवं प्रकृति को धारण करने वाले हैं वे भाष्य के अनुसार कुलार्य हैं। प्रज्ञापना में कुलकर आदि का वर्णन आर्य के प्रसंग में नहीं है। प्रज्ञापना में उग्र, भोज, राजन्य आदि कुलार्य के भेद हैं, भाष्य उनको जात्यार्य के रूप में उल्लेखित करता है। प्रज्ञापना वर्णित जात्यार्य के विदेह, हरय एवं अम्वष्ठ ये तीन भेद भाष्य में वर्णित है, अन्य जातियों का उल्लेख नहीं है किंतु कुंवु, नाल आदि नये नाम जात्यार्य के प्रसंग में उपलब्ध है। प्रज्ञापना, जात्यार्य छह प्रकार के माने गये हैं जबकि भाष्य में उनकी संख्या निर्धारित नहीं है। प्रज्ञापना में उस समय की प्रचलित छह धनाढ्य जातियों को ही जात्यार्य कहा है जबकि भाष्य में ऐसा कोई संकेत नहीं है। कार्य की अवधारणा भी दोनों ग्रंथों में भिन्न प्रकार की है। प्रज्ञापना के अनुसार जो अर्धमागधी भाषा बोलने वाले तथा ब्राह्मी लिपि में लिखने वाले हैं वे भापार्य हैं। तत्वार्थ भाप्य ने शिष्ट जनों की भाषा के नियत वर्ण, लोक प्रसिद्ध, स्पष्ट शब्दों एवं पांच प्रकार के आर्य जिस भाषा को बोलते हैं, उस भाषा का संव्यवहार करने वाले को भापार्य कहा है।
सर्वार्थसिद्धि में ऋद्धिप्राप्त एवं ऋद्धिरहित दोनों प्रकार के आर्यों का उल्लेख है।५ प्रज्ञापना में ऋद्धिप्राप्त आर्य छह प्रकार के माने गये हैं, सर्वार्थसिद्धि में वे सात प्रकार के माने गये तथा उनके नाम भी प्रज्ञापना से सर्वथा भिन्न है। प्रज्ञापना में अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण एवं विद्याधर को ऋद्धिप्राप्त आर्य कहा है जबकि सर्वार्थ सिद्धि में बुद्धि, विक्रिया, तप, वल, औषध, रस और अक्षीण को ऋद्धिप्राप्त आर्य कहा है। प्रज्ञापना में ऋद्धिरहित आर्य नौ प्रकार के माने गये हैं, सर्वार्थसिद्धि में उनकी संख्या पांच है। ज्ञानार्य, कुलार्य एवं शिल्पार्य का उल्लेख सवार्थसिद्धि में नहीं है।
प्रज्ञापना में कर्मभूमिज के आर्य एवं म्लेच्छ दो भेद हैं। वहां अन्तीपज मनुष्यों का इस प्रकार का कोई विभाग नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में आर्यों के भेद में क्षेत्रार्य का तो उल्लेख है किंतु उनका स्थान कौन-सा है, इसका उल्लेख प्राप्त नहीं है जबकि म्लेच्छ मनुष्यों को अन्तीपज एवं कर्मभूमिज के भेद से दो प्रकार का स्वीकार किया है। सर्वार्थसिद्धिकार का यह अभिमत जान पड़ता है कि उन्होंने
१६४ . व्रात्य दर्शन
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