________________
सूत्रकृतांग में आर्य शब्द श्रेष्ठ अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस आगम में मोक्षमार्ग के लिए आर्यमार्ग शब्द का प्रयोग हुआ है। इस सूत्र की व्याख्या में जैनेन्द्र शासन में प्रतिपादित मोक्ष मार्ग को आर्यमार्ग कहा गया है।१६ धर्म के क्षेत्र में मिथ्यादृष्टि को हीन माना जाता है अतः इस आगम में मिथ्यादृष्टि के लिए अनार्य शब्द का प्रयोग हुआ है।२०
सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में आर्य एवं अनार्य के मध्य एक भेदरेखा खिंची है और उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास का तारतम्य बतलाया है। यह तारतम्य अनुपात के आधार पर है। आनुपातिक दृष्टि से आर्य उच्च गोत्री, लम्बे, गौरवर्ण तथा सुन्दर आकृतिवाले होते हैं। अनार्य नीच गोत्री, नाटे, कृष्णवर्ण एवं असुन्दर आकृति वाले होते हैं।२१।
भौम, उत्पात, लक्षण आदि नाना प्रकार के पापश्रुत अध्ययन हैं, जो व्यक्ति इन विद्याओं का दूसरे के लिए प्रयोग करता है वह अनार्य है तथा वह सघन अंधकार की तरफ प्रस्थान करता है। प्रस्तुत विवेचन से ज्ञात होता है कि जो भी व्यक्ति गलत कार्य करता है भले ही वह किसी देश विशेष का हो, किसी भी भाषा को बोलने वाला हो वह अनार्य है तथा उसका आगामी जीवन भी अच्छा नहीं होता है।
आर्य एवं अनार्य (म्लेच्छ) की विस्तृत चर्चा हमें प्रज्ञापना सूत्र में प्राप्त होती है। जहां अनार्यों का स्थान विशेष की अपेक्षा से नामोल्लेख मात्र है किंतु आर्यों का वर्णन विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया गया है।
जैन परम्परा के अनुसार पांच भरत, पांच ऐरवत एवं पांच महाविदेह ये पन्द्रह कर्मभूमियां हैं। कर्मभूमिज मनुष्य कार्यशील होकर अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। उन कर्मभूमिज मनुष्य के आर्य और म्लेच्छ के भेद से दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं।२५ तत्वार्थसूत्र में भी मनुष्य के आर्य एवं म्लेच्छ ये दो भेद प्राप्त हैं।२० प्रज्ञापना में ऋद्धिप्राप्त एवं ऋद्धिरहित आर्य के ये दो भेद प्रज्ञप्त हैं तथा ऋद्धि प्राप्त छह प्रकार के तथा ऋद्धि रहित आर्य वहां नौ प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। तत्वार्थभाष्य में ऋद्धिप्राप्त एवं ऋद्धिरहित ये भेद नहीं है। वहां आर्यों के छह भेद किये गये हैं जो प्रज्ञापना में प्रदत्त ऋद्धिरहित आर्यों के भेदों से तुलनीय हैं। प्रज्ञापना में ऋद्धिरहित आर्यों के नौ प्रकार बताये गये हैं जबकि तत्वार्थ में आर्य छह प्रकार के ही प्रज्ञप्त हैं। वहां ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य का उल्लेख नहीं है तथा तत्वार्थभाष्य में पन्द्रह कर्मभूमि में उत्पन्न सभी मनुष्यों को क्षेत्रार्य कहा है जबकि प्रज्ञापना के अनुसार कर्मभूमिज मनुष्य दोनों प्रकार के होते हैं। तत्वार्थभाष्य में तीस अकर्मभूमि
व्रात्य दर्शन - १६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org