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२२. जैन परम्परा में आर्य की अवधारणा
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में आर्यपरम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भाषा और सभ्यता का अनुसंधान करनेवालों की यह अवधारणा रही है कि पुराकाल में आर्यजाति किसी एक स्थान में निवास करती थी, तत्पश्चात् कतिपय कारणों से वह एशिया और योरोप में फैल गयी। अन्वेषकों का यह भी मन्तव्य है कि आर्यजाति की एक शाखा ने भारत वर्ष में प्रवेश करके एक नये समाज की संरचना की। आर्यों के भारत आगमन, उनके मूल स्थान आदि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है।
सर्वप्रथम Florentine के एक व्यापारी Filippo Sassetti (1583-1588) (फिलिपो ससेटी) ने संस्कृत एवं योरोप की प्रमुख भाषाओं में पारस्परिक सम्बन्ध की बात कही। उसके बाद सर विलियम जोन्स ने ग्रीक, लेटिन, गोथीक, सेल्टिक, संस्कृत, परसीयन आदि भाषाओं का उद्गम स्थान एक माना है। उन भाषाओं को आज विद्वान् Indo-European भाषा के रूप में जानते हैं। इसके बाद इस तथ्य को अन्तिम चरण तक पहुंचाते हुये मैक्समूलर ने भाषा साम्य के आधार पर ही आर्य की अवधारणा प्रस्तुत की। उनके अनुसार आर्य कोई जाति नहीं थी किंतु एक विशेष प्रकार की भाषा बोलने वालों को ही आर्य कहा जाता था।
मैक्समूलर ने कहा
Aryan, in scientific language is utterly inapplicable to race. It means language is and nothing but language; and if we speak or Aryan race at all, we should know that it means no more than X+Aryan speech".!
मैक्समूलर के विपरीत Penka (पेंका) ने आर्य को जाति रूप में स्वीकार किया है। उनके अनुसार आर्य एक जाति थी तथा जो कोई मनुष्य का समूह
व्रात्य दर्शन • १८६
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