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विषयों के, विभिन्न ग्रंथों के आधार पर प्रासंगि अर्थ खोजकर आगम व्याख्या को एक नयी दिशा प्रदान की है!
आचार्यश्री महाप्रज्ञ का हर वक्तव्य साधार होता है। ‘नामूलं लिख्यते किञ्चित् नानपेक्षितमुच्यते' यह वाक्य उनकी शोध/खोज का आदर्श है। प्राचीन सिद्धान्तों को तर्क संगत एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की अद्वितीय क्षमता उनमें है। इसलिए वे मौलिक लिख/बोल सकते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के संदेशों, वक्तव्यों में बोधगम्यता है। तार्किक भूख को शान्त करने की क्षमता है। अनुभव के निर्झर से निसृत भावों को तर्क की वेदी पर प्रतिष्ठित कर उन्होंने जनभोग्य सत्य परोसा है। 'साक्षात्कतधर्माण ऋषयः' ऋषित्व को यह अभिधा उनके हर आचार एवं व्यवहार में परिलक्षित है। जैन आगमों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में उनके योगदान का मूल्यांकन कोरा वार्तमानिक नहीं है किंतु त्रैकालिक है। अतीत के आलोक मे युक्त वर्तमान का अवदान भविष्य के अन्वेपण को नयी दशा एवं दिशा देने में सक्षम है।
१८८ - व्रात्य दर्शन
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