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________________ प्रचुरमात्रा में उपयोग किया है। उत्तराध्ययन के 'ईषुकारीय' अध्ययन में प्रासंगिक रूप में ब्राह्मण धर्म का उल्लेख हुआ है। आचार्यश्री ने उस ब्राह्मण धर्म के संक्षिप्त उल्लेख का विशद वर्णन उस परम्परा के मान्य ग्रंथों द्वारा किया है। स्मृति आदि ग्रंथों का प्रमाण देते हुए ब्राह्मण धर्म को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं-'ब्राह्मण और स्मृतिशास्त्र का यह अभिमत रहा है कि जो द्विज वेद को पढ़े बिना, पत्रों को उत्पन्न किये बिना और यज्ञ किये बिना मोक्ष की इच्छा करता है, वह नरक में जाता है, इसलिए वह विधिवत् वेदों को पढ़कर, पुत्रों को उत्पन्न कर और यज्ञ कर मोक्ष में मन लगाए-संन्यासी बने।' ऐतरेय ब्राह्मण को इस प्रसंग में उपस्थित करते हैं-नापुत्रस्य लोकोऽस्ति (७३) मनुस्मृति के (६/३६३७) वक्तव्य से भी इस अवधारणा को पुष्ट करते हैं। किसी परम्परा की अवधारणा प्रस्तुति में वे निष्पक्ष रहते हैं, भले सिद्धान्ततः उस अवधरणा से वे सहमत हो या नहीं जैसा कि उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है। आयुर्वेद साहित्य का उपयोग आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने आगमों की व्याख्या में आयुर्वेद साहित्य का भी प्रचुरमात्रा में उपयोग किया है और इस प्रक्रिया से आगमों के अनेक दुर्बोध स्थलों को सुबोधता एवं सुसंगतता प्रदान की है। काल-प्रवाह में जिन शब्दों के अर्थ विस्मृत हो गये थे। टीका एवं चूर्णि से भी प्रासंगिक अर्थ प्राप्त नहीं हो रहा था, ऐसे अज्ञात शब्दों के अर्थ इस प्रक्रिया से प्राप्त हुये। ऐसे शब्द अनेक होंगे, सबका कथन यहां सम्भव नहीं है, एक उदाहरण प्रस्तुत है-भगवती सूत्र में गर्भप्रकरण के अन्तर्गत एक प्रसंग आता है कि गर्भगत जीव मुख से कवल आहार करने में सक्षम नहीं होते किंतु 'अपरा' जो पुत्रजीव से प्रतिबद्ध और मातृजीव से स्पृष्ट होती है, उससे गर्भगत जीव चय और उपचय करता है। (भ. १/३४६) प्रस्तुत प्रसंग में 'अपरा' का अर्थ स्पष्ट नहीं था। पं. बेचरदासजी ने 'अपरा' का अर्थ 'दूसरी' किया जो प्रस्तुत प्रसंग में समीचीन नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ ने चरक संहिता में आगत गर्भप्रकरण से इसका अर्थ स्पष्ट किया है। वहां भी अपरा शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसको विज्ञान की भाषा में Placenta कहते हैं। 'अपरा' पारिभाषिक शब्द है। दशवैकालिक सूत्र में आगत 'धूम-नेत्र' शब्द की व्याख्या में भी उसके टीकाकार अभ्रान्त नहीं थे। वे इसके विभिन्न अर्थ कर रहे थे। आचार्यश्री ने आयुर्वेद के ग्रंथों के सहारे इस शब्द का समीचीन अन्वेषण किया। आचार्यश्री ने विभिन्न व्रात्य दर्शन - १८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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