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________________ शाखा दूसरी शाखा से जुड़ी रहती है। हम उसको अलग करके नहीं देख सकते। यदि कोई वेद का ज्ञाता है तो उसे इतिहास, पुराण आदि का भी ज्ञान होना चाहिये। वेद का अर्थ उनसे ही सम्यक रूप से समर्थित हो सकता है। कहा जाता है कि-वेद अल्पश्रुत व्यक्ति से भयभीत रहता है क्योंकि वह उसके यथार्थ को प्रकट कर ही नहीं सकता, अपितु उसकी मूल अवधारणा को भी तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत कर . देता है। इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत् । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥ इसलिए भाष्यकार का बहुश्रुत होना अत्यन्त अपेक्षित है अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने अनेक प्रकार के अनेक ग्रंथों का तलस्पर्शी स्वाध्याय किया है, इसलिए उनका ज्ञान सतही नहीं, गहरा है। आगम की पुष्टि में अनेक ग्रंथों का वे उद्धरण देते हैं। इससे उनकी बहुश्रुतता प्रकट होती है। वैदिक साहित्य का प्रयोग आचारांग के 'जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो' २/१२६ सूत्र का अर्थ-'यह शरीर जैसा भीतर है वैसा बाहर है, जैसा बाहर है वैसा भीतर है' यह अर्थ आचार्यश्री ने किया किन्तु उन्हें स्वयं को इस अर्थ से संतुष्टि नहीं हुई तब पादटिप्पण में इसका वैकल्पिक अनुवाद करके अपने मन्तव्य को परिपुष्ट किया-'साधक जैसा अन्तस् में वैसा बाहर में, जैसा बाहर में वैसा अंतस् में रहे।' कुछ दार्शनिक अन्तस् की शुद्धि पर बल देते थे और कुछ बाहर की शुद्धि पर। भगवान महावीर एकांगी दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने दोनों को एक साथ देखा और कहा-केवल अंतस् की शुद्धि ही पर्याप्त नहीं है। बाहरी व्यवहार भी शुद्ध होना चाहिये। वह अंतस् का प्रतिफल है। केवल बाहरी व्यवहार का शुद्ध होना ही पर्याप्त नहीं है अंतस् की शुद्धि के बिना वह कोरा दमन बन जाता है, इसलिए अंतस् भी शुद्ध होना चाहिये। अंतस् और बाहर दोनों की शुद्धि ही धार्मिक जीवन की पूर्णता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने आचारांग के उपर्युक्त वक्तव्य की तुलना 'यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्यं तदन्तरम्' २/३० अथर्ववेद के इस सूक्त से की है, जो प्रस्तुत संदर्भ में समीचीन है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने विषय-वस्तु की स्पष्टता के लिए जैनेतर ग्रन्थों का १८६ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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