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में एक नवीन आयाम प्रदान किया है। उन्होंने स्वयं कहा है कि 'इस प्रश्न का नया समाधान उपलब्ध है। जीव और पुद्गल दोनों में एक स्नेह नाम का तत्त्व होता है। इस तत्त्व के कारण उन दोनों में सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। स्नेह का सम्बन्ध जीव और पुद्गल दोनों से है। जीव में स्नेह है-आश्रव और पुद्गल में स्नेह है-आकर्षित होने की अर्हता। इस उभयात्मक स्नेह के द्वारा परस्पर सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।' आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की यह व्याख्या 'अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा' भगवती के इस वाक्यांश के आधार पर है। यद्यपि इस वाक्यांश की अनेक व्यक्तियों ने व्याख्या की है किंतु यहां तक मात्र आचार्यश्री महाप्रज्ञ पहुंचे हैं। उनकी इस मौलिक व्याख्या ने सम्बन्धवाद की समस्या के समाधान में अभिनव योगदान दिया है।
सूत्रकृतांग सूत्र में आगत ‘सहित' शब्द का जैन परम्परा मान्य अर्थ स्वीकार करके भी आचार्यश्री महाप्रज्ञजी न हठयोग परम्परा में स्वीकृत अर्थ को भी महत्ता प्रदान की है। योग ग्रंथों में 'सहित' शब्द का प्रयोग कुम्भक प्राणायाम के अर्थ में हुआ है। आचार्यश्री का मानना है कि ....सहित कुम्भक करनेवाला आत्मस्थ हो जाता है। ...जिस परम्परा में महाप्राण की साधना का उल्लेख प्राप्त है वहां ‘सहिए' का कुम्भक अर्थ ही रहा हो-इसमें कोई संदेह नहीं है।' आचार्य महाप्रज्ञजी जैन धर्म की ध्यान-साधना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से अवगत हैं। उन्होंने इस संदर्भ में गम्भीर मंथन किया है तथा उसे अनुभव के स्तर पर भी जीया है तभी तो वे सहित शब्द का कुम्भक अर्थ निःशंक भाव से प्रस्तुत कर देते हैं। आगमों की व्याख्या में विभिन्न प्रकार के साहित्य का उपयोग ___ आगमों की व्याख्या में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने वेद, आरण्यक, उपनिषद, गीता, योग के ग्रन्थ, आयुर्वेद के ग्रन्थ, त्रिपिटक आदि बौद्ध साहित्य का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया है। पाश्चात्य दर्शन, मनोविज्ञान एवं परामनोविज्ञान के साहित्य का भी आगमों की व्याख्या के संदर्भ में यथोचित प्रयोग हुआ है। कादम्बिनी, धर्मयुग, विज्ञान सम्बन्धी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आधुनिक अन्वेषणों का भी यथायोग्य उपयोग आपने अपने ग्रंथों में किया है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ का यह प्रयास उनकी बहुश्रुतता को प्रकट करता है। बाहुश्रुत्य के बिना आगमों की सम्यक व्याख्या नहीं की जा सकती। अल्पश्रुत व्यक्ति अर्थ के गाम्भीर्य को प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं होता है। एक विषय का ज्ञान तभी परिपुष्ट होता है जब उसके धारक को अन्य विषयों का भी ज्ञान हो। 'शास्त्रं शास्त्रानुबन्धि' ज्ञान की एक
व्रात्य दर्शन • १८५
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