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आचारांग के ३/२८ सूत्र की व्याख्या भी विमर्शनीय है । 'तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, समत्तदंसी ण करेति पावं' प्रस्तुत सूत्र में 'तिविज्जो' पाठ है जिसमें आकार को लुप्त मान 'तम्हाऽतिविज्जो' यह पाठ माना जाता रहा है। चूर्णि एवं टीका यही पाठ मानकर इसका अर्थ करती है । चूर्णिकार ने 'विज्ज' का अर्थ विद्वान् किया और वैकल्पिक रूप से उसका अर्थ अतिविज्ञ किया। टीकाकार प्रस्तुत शब्द का अर्थ 'अतिविद्य' करते हैं । चूर्णि एवं टीका की इस व्याख्या के आधार पर ही 'अतिविज्ज' पाठ मानकर इसका अर्थ होता रहा किंतु आचार्यश्री महाप्रज्ञ की सूक्ष्म मेधा इस अर्थ से संतुष्ट नहीं हो पा रही थी । उन्होंने अन्वेषण किया । तत्कालीन अन्य जैनेतर ग्रंथों का भी अवलोकन किया। बौद्ध साहित्य के निरीक्षण के समय ज्ञात हुआ यह 'तिविज्ज' पाठ है जिसका अर्थ है - त्रिविद्य-तीन विद्याओं को जानने वाला । यह भगवान् महावीर के समय का प्रसिद्ध प्रयोग है। बौद्ध साहित्य में इसकी स्पष्ट व्याख्या उपलब्ध है। बौद्ध परम्परा के अनुसार 'तिविज्ज' का अर्थ इस प्रकार है
तीन विद्याएं
१. पूर्व जन्मों को जानने का ज्ञान ।
२. मृत्यु तथा जन्म को जानने का ज्ञान ।
३. चित्तमलों के क्षय का ज्ञान ।
बौद्ध साहित्य के प्रस्तुत श्लोक में 'तिविज्ज' शब्द का उल्लेख प्राप्त है
पुव्वे निवासं यो वेदी, सग्गापायं च पस्सति, अथो जातिक्खयं पत्तो, अभिज्ञा वोसितो मुनि । एताहि तीहि विज्जाहि, तेविज्जो होति ब्राह्मणो, तं अहं वदामि तेविज्जं नायं लपितलापनं ॥ ( अंगुत्तरनिकाय भाष्य १ पृ. १७२)
जैन परम्परा के अनुसार 'त्रिविद्य' का अर्थ होगा१. पूर्वजन्म की स्मृति ।
२. प्राणी जगत् को जानने की विद्या ।
३. प्राणियों के सुख-दुःख का पर्यालोचन करने की विद्या ।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ यदि चूर्णि और टीका के आधार पर 'अतिविज्जय' पाठ
को स्वीकार करके ही उसका अर्थ कर देते तो 'तिविज्ज' की प्राचीन अर्थ - परम्परा
व्रात्य दर्शन • १८३
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