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करता है तथा प्राचीनकाल में अभिव्यक्त किये गये तथ्यों को इस प्रकार उचित परिप्रेक्ष्य में रखता है कि वे अपने मूल अर्थ को अभिव्यक्त करें और साथ ही आधुनिक पाठक को प्रासंगिक भी प्रतीत हो। प्राचीन भाष्यकारों ने इस कर्म को 'उक्तचिंता' के नाम से अभिहित किया है।
२. सम्यक् संशोधन-आगमों के काल से वर्तमान काल तक की सुदीर्घ अवधि में उन पर अनेक कार्य हुए हैं। वे सभी निर्धान्त हो यह आवश्यक नहीं है। व्याख्याकार का काम ऐसी भ्रान्तियों को दूर करने का भी है। प्राचीन भाषा में इस कार्य को 'दुरुक्त चिंता' कहा जाता है।
३. सम्यक् परिवर्धन-चिंतन एक प्रवाह है। यदि उस प्रवाह में अवरोध आ जाये तो चिंतन मर जाता है। भाष्यकार, विशेषकर भारतीय भाष्यकार भाष्य में दिये गये तथ्यों का केवल अनुवाद ही नहीं करते प्रत्युत अपनी मौलिक सूझबूझ से पुरातन चिंतन को आगे भी बढ़ाते हैं। भाष्यकार के इस कार्य को 'अनुक्तचिंता' कहा जाता है।
हम कतिपय उदाहरणों के द्वारा यह प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेंगे कि जैन आगमों के भाष्यकार के रूप में आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने भाष्यकार के इन तीनों ही दायित्वों का निर्वाह कितने प्रशस्त रूप में किया है।
सम्यक् विश्लेषण
आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा कृत आगमों की व्याख्या के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे विषय की स्पष्टता के लिए एक ही श्लोक की व्याख्या में प्रसंगानुकूल चार, पांच टिप्पणियों का प्रयोग भी कर देते हैं। शब्द विमर्श के माध्यम से शब्द की अर्थात्मा तक पहुंचते हैं जिससे पाठक को विषय सुस्पष्ट हो जाये। प्रस्तुत प्रसंग में उत्तराध्ययन के निम्न श्लोक की व्याख्या द्रष्टव्य है
'जाईजरामच्चुभयाभिभूया, बहिर्विहारभिनिविट्ठचित्ता। ___ संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा, ठूण ते कामगुणे विरत्ता ॥ उत्तरा. १४/४
प्रस्तुत श्लोक के 'जाईजरामच्चु बहिर्विहार, संसारचक्कस्स एवं कामगुणे विरत्ता' इन चार शब्दों की मीमांसा की है। इस प्रकार की विमर्शना से श्लोक का हृदय पाठक को बड़ी सुगमता से आत्मसात् हो जाता है। अपने कथ्यों की स्पष्टता के लिए वे चूर्णि, टीका आदि के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों को भी उद्धत करते हैं। अर्थ विश्लेषण में उनकी तुलनात्मक दृष्टि सहज ही पाठक को आकर्षित करती है।
१८२ . व्रात्य दर्शन
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