________________
ने लिखा है - 'संपादन का कार्य सरल नहीं है -- यह उन्हें सुविदित है जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रंथों के संपादन का कार्य और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भावधारा आज की भाषा और भावधारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है... भाषा शास्त्र के नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज वही अर्थ सही है जो आज प्रचलित है | आगम साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं । इस स्थिति में हर चिंतनशील व्यक्ति यह अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के संपादन का काम कितना दुरुह है।' इस दुरुहता का अनुभव करते हुये भी आचार्य महाप्रज्ञ ने इस कार्य को संपादित करने का उत्तरदायित्व अपने सबल कंधों पर ओढ़ा ।
विलक्षणयुगल
जैन आगम स्मृति के आधार पर सुरक्षित रहे किंतु स्मृति में विस्खलन होना अस्वाभाविक नहीं है। स्मृति के आधार पर उन्हें लिपिबद्ध किया गया । उन लिपिबद्ध प्रतियों के द्वारा लम्बे समय तक व्युत्पन्न, अव्युत्पन्न लेखकों द्वारा उनका पुनः लिपिकरण होता रहा अतः लिपि की स्खलना भी प्रतियों में होती रही, यह सर्वविदित तथ्य है। लिपि-दोष के साथ ही अर्थ- परम्परा भी पूर्णतया सुरक्षित नहीं है ऐसी स्थिति में आगमों की व्याख्या करने का साहस कोई अत्यन्त साहसी एवं प्रज्ञाशील व्यक्ति ही कर सकता है। आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ का योग आगम संपादन की इन सारी अर्हताओं को पूर्ण करता था ।
सफल व्याख्याकार
आचार्य महाप्रज्ञ जैन आगमों के पाठ संशोधक, व्याख्याकार एवं भाष्यकार हैं। अपनी मेधा के द्वारा अथवा अतीन्द्रिय क्षमता के द्वारा उन्होंने आगम के अर्थों का पुनः संधान किया है । अपनी अन्तर्दृष्टि के द्वारा प्रासंगिकता के आधार पर आगम के अर्थ संपादन में अपनी मौलिक दृष्टि का भरपूर उपयोग किया है। आगम जैसे प्राचीन ग्रन्थों की आधुनिक काल में व्याख्या करते समय व्याख्याकार के सम्मुख तीन बिन्दु रहते हैं
१. सम्यक् विश्लेषण - आगम जैसे आर्ष ग्रन्थ अनुभव प्रधान हैं, तर्कप्रधान नहीं, अतः यह संभव है कि अनेक स्थलों पर उनमें तार्किक संगति प्रतीत न होती हो, भाष्यकार अपनी तर्कबुद्धि का प्रयोग करके ऐसे स्थलों की संगति भी प्रदर्शित
व्रात्य दर्शन • १८१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org