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________________ २१. जैन आगमों की व्याख्या को आचार्य महाप्रज्ञ का योगदान जैनधर्म/दर्शन के आगम आधारभूत ग्रन्थ हैं। वर्तमान में उपलब्ध भगवान महावीर की वाणी, जिसे आगम कहा जाता है, भगवान महावीर के एक हजार वर्ष बाद होने वाले देवर्द्धिगणी क्षमाक्षमण की वाचना है। काल के प्रवाह में आगमों की विशाल ज्ञान-राशि विलुप्त होती रही। आज उस विशाल ज्ञानराशि का थोड़ा-सा भाग हमें उपलब्ध है। जितना भी उपलब्ध है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आगम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध है। वह भाषा उस समय की जनभापा थी किन्तु आज वह भाषा जन सामान्य के लिए सहज ग्राह्य नहीं है। समय के प्रवाह में शब्दों की अर्थयात्रा में भी परिवर्तन आता है। इन सभी कारणों से आगम की सुबोधता में अन्तर आना स्वाभाविक ही है। गुरुदेवश्री तुलसी ने जैन आगम संपादन का संकल्प स्वीकार किया। उस संकल्प की पूर्णाहूति के पुरोधा पुरुष आचार्य श्री महाप्रज्ञ ही रहे हैं। आचार्य श्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने उस दुर्बोध ज्ञानराशि को बोधगम्य बनाने का श्लाघनीय प्रयत्न किया है और वर्तमान में भी संपादन के उस कार्य में सतत संलग्न है। जैनआगमों के संपादन का कार्य अत्यन्त श्रम-साध्य तो है ही इसके साथ ही वही व्यक्ति उस सत्य ही अतल गहराई में जा सकता है जो अन्तर्दृष्टि सम्पन्न है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ आगम-संपादन की इन सभी अर्हताओं से अभिमण्डित हैं। आगम संपादन के माध्यम से उन्होंने अनेक सत्यों का उद्घाटन कर सम-सामायिक चिंतन को एक नयी दिशा प्रदान की। आगम संपादन की दुरुहता आगम संपादन की दुरुहता को प्रकट करते हुए स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञ १८० . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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