SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विख्यात है। 'क्लीं' अनंग बीज अथवा आकर्षण बीज के रूप में स्वीकृत है। 'अहम्' जैन परम्परा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मंत्र है। प्रेक्षाध्यान के प्रयोगों में इसकी विशेष साधना की जाती है। यह वीतरागता सूचक बीजमंत्र है। इस मंत्र का शरीर पर न्यास किया जाता है। कवच निर्माण प्रक्रिया में भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'अर्हम्' के जप में प्रचुर रोग निवारक क्षमता विद्यमान है। 'अर्ह को ज्ञानबीज एवं जगद्वन्ध कहा गया है। यह मन्त्रराज है, इसका ध्यान करना लाभप्रद है ज्ञानबीजं जगद्वन्द्यं, जन्म-मृत्यु-जरापहम् । अकारादिहकारान्तं रेफबिन्दुकलाङ्कितम् । भुक्तिमुक्त्यादिदातारं, स्रवन्तममृताम्बुभिः । मन्त्रराजमिमं ध्यायेद्, धीमान् विश्वसुखावहम् ॥ तत्त्वार्थसारदीपक मंत्र सुरक्षा कवच आचार्य महाप्रज्ञजी के शब्दों में 'मंत्र एक प्रतिरोधात्मक शक्ति है। मंत्र एक कवच है। मंत्र एक प्रकार की चिकित्सा है।' संसार में रहने वाले व्यक्ति के जीवन में आरोह-अवरोह के प्रसंग उपस्थित होते रहते हैं, मंत्र विषम परिस्थिति में भी व्यक्ति के मानसिक मनोबल को सुदृढ़ बनाये रखता है। बाह्य दूषित वातावरण से सुरक्षा करता है तथा आभ्यन्तर दोष की शुद्धि करता है। प्रतिकूल प्रहारों के आघातों से सुरक्षा प्रदान करता है। मंत्र साधना कवच बनाने की साधना है। आभामंडल को निर्मल बनाने की साधना है। ___ मंत्र विकल्प से निर्विकल्प तक पहुंचने की प्रक्रिया है। सविचार से निर्विचार तक पहंचने की पद्धति है। जहां शब्द, ध्वनि और संकल्प शक्ति तीनों का योग होता है, वहां मंत्र की शक्ति जागृत हो जाती है। मंत्र का साक्षात्कार हो जाता है और मंत्र का देवता प्रकट हो जाता है। जब मंत्र जप करने वाले का शब्द ज्योति में बदल जाता है तब मंत्र का साक्षात्कार हो जाता है। मंत्र चैतन्य हो जाता है। मंत्र जब चैतन्य बनता है तब ही वह विशिष्ट शक्ति का संवाहक एवं प्रकट करने वाला बनता है। मंत्र शब्दात्मक होता है। उसमें अचिंत्यशक्ति होती है। उसके द्वारा आध्यात्मिक उन्नयन होता है। व्यक्ति की चेतना अन्तर्मुखी बन जाती है, जो अध्यात्म का मूल लक्ष्य है। व्रात्य दर्शन - १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy