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ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजन बीजसंज्ञक हैं और अकार आदि स्वर शक्ति रूप हैं। मंत्र बीजों की निष्पनि बीज और शक्ति के संयोग से होती है। सारस्वत बीज, माया बीज, पृथ्वी बीज, अग्नि बीज, प्रणव बीज, मारुत बीज, जलबीज, आकाश बीज आदि की उत्पत्ति व्यंजन एवं स्वर के संयोग से ही हुई है। मंत्र एवं विद्या
जैन परम्परा में मंत्र और विद्या इन दो शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है तथा दोनों की परस्पर भिन्नता का उल्लेख भी मिलता है। जिस मंत्र में स्त्री देवता अधिष्ठात्री हो, वह विद्या है तथा जिसमें पुरुष देवता अधिष्ठाता हो वह मंत्र है, अथवा जिसे विशेष प्रकार की साधना के द्वारा साधा जाये वह विद्या और जो बिना साधे ही पठित सिद्ध हो वह मंत्र है।
इत्थी विज्जाऽभिहिया, पुरिसो मंतुनि तव्विसेसोयं। विज्जा ससाहणा वा, साहणरहिओ अ मंतुत्ति ॥
आवश्यकनियुक्ति गा. ६३। मंत्र के प्रकार ___ मंत्र-शास्त्र में मंत्रों के विभिन्न भेद किये गये हैं। 'प्रयोगसार' नामक ग्रन्थ में बीजमंत्र, मंत्र एवं मालामंत्र के भेद से मंत्रों के तीन प्रकार बताये गये हैं। नौ अक्षर तक के मंत्र बीज मंत्र कहलाते हैं। बीस अक्षर तक के मंत्र कहलाते हैं तथा उनसे अधिक अक्षरों वालों को माला मंत्र कहा जाता है
नवाक्षरान्ता ये मन्त्रा बीजमन्त्रा प्रकीर्तिताः । पुनर्विशति वर्णान्ता मन्त्रा मन्त्रास्तथोदिताः।
ततोऽधिकाक्षरमंत्रा मालामन्त्रा इति स्मृताः ॥ मंत्र-व्याकरण में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग एवं नपुंसक के भेद से मंत्र के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं। जिन मंत्रों के अंत में 'स्वाहा' पद का प्रयोग होता है वे स्त्रीलिंग मंत्र, जिन मंत्रों के अंत में हुं, वषट्, फट्, धे तथा, स्वधा आदि पदों का प्रयोग होता है वे पुल्लिंगी मंत्र एवं जिनके अन्त में 'नमः' पद का प्रयोग किया जाता है वे नपुंसक मंत्र कहलाते हैं
'स्त्री-पुं-नपुंसकत्वेन, मन्त्रास्ते त्रिविधा मताः । स्वाहा शब्दावसानाः स्युर्ये मन्त्रास्तान् विदुस्स्त्रियः ॥
व्रात्य दर्शन - १७७
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