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________________ 'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता आत्मानः यक्षादिशासनदेवता वा अनेन इति मंत्र: ' अर्थात् जिसके द्वारा परम पद में स्थित आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का सत्कार किया जाये, वह मंत्र है। मंत्र व्याकरण के अनुसार मंत्रवेत्ता जिसका गुप्त रूप से संभाषण करते हैं, वह मंत्र है 'मन्त्र्यन्ते गुप्तं भाष्यन्ते मन्त्रविद्भिरिति मंत्राः' पंचकल्प भाष्य में कहा गया कि जो पठित सिद्ध हो वह मंत्र है- मंतो पुण होइ पठियसिद्धो । पंचाशक की टीका में आचार्य अभयदेवसूरि ने कहा है कि-मंत्रो देवाधिष्ठितोऽसावक्षररचनाविशेषः' अर्थात् देवता से अधिष्ठित अक्षर रचना विशेष मंत्र कहलाती है। जिसके आदि में ओम् और अन्त में स्वाहा पद होता है तथा जो ह्रीं आदि वर्ण विन्यास रूप होता है, उसे मंत्र कहते हैं । 'मंत्र ओंकारादिस्वाहापर्यन्तहींकारदिवर्णविन्यासात्मकः' (उत्तराध्ययन शान्त्याचार्यवृत्ति) इन सभी परिभाषाओं का समासीकरण करने से फलित होता है कि विशेष प्रकार की शब्द संरचना जो विशेष प्रयोजन के लिए हुई है उसे मंत्र कहा जाता है । मंत्राक्षर संयोजना मंत्र साहित्य में अक्षर संयोजना पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया जाता है। मंत्रों में शब्द संयोजना के वैशिष्ट्य से ही सामर्थ्य उद्भूत होता है । वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर स्वयं न शुभ होता है और न ही अशुभ होता है किन्तु उसमें शुभता एवं अशुभता विरोधी एवं अविरोधी वर्गों के योग से आती है। बीजाक्षरों में उपकारक एवं दग्धाक्षरों में घातक शक्ति निहित होती है । सब अक्षरों में मंत्र बनने का सामर्थ्य है किन्तु उनका उचित संयोजन करने वाला मंत्रवेत्ता दुर्लभ होता है अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्तिमूलमनौषधम् । अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभम् ॥ मातृकावर्ण मंत्रों का उत्पत्ति स्थान वर्णमाला ही है । अकार से लेकर क्षकारपर्यन्त वर्ण मातृकावर्ण कहलाते हैं । इन मातृका वर्णों का सृष्टि, स्थिति एवं संहार रूप से तीन प्रकार का न्यास होता है । अकारादिक्षकारान्ता वर्णाः प्रोक्तास्तु मातृकाः । सृष्टि- न्यास-स्थिति-न्यास - संहृतिन्यासतस्त्रिधा ॥ जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ ( ३७६) १७६ • व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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