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________________ ईश्वर का वाचक प्रणव ईश्वर का वाचक है-तस्य वाचकः प्रणवः । निरतिशय ज्ञान-क्रिया के शक्तिरूप ऐश्वर्य से युक्त व्यापक ईश्वर प्रणव (ओम्) का वाच्य अर्थ है। ईश्वर एवं प्रणव में वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव सम्बन्ध है। ओम् शब्द का जप और उसके वाच्य ईश्वर का पुनः-पुनः चिन्तन करना, ध्यान करना ईश्वर का प्रणिधान है। 'तज्जपस्तदर्थभावनम्' चित्त को सब ओर से निवृत्त करके केवल ईश्वर में स्थिर कर देने का नाम भावना है। ईश्वर में ही तदाकार हो जाना है। यह भावना बार-बार के अभ्यास से इतनी दृढ़ हो जाये कि प्रणव का उच्चारण करते ही ईश्वर का साक्षात् होने लगे। जब साधक अभ्यास से इस स्थिति का निर्माण कर लेता है तब वह शीघ्र ही इस ईश्वर प्रणिधानरूप क्रियायोग से असंप्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर लेता है। क्रियायोग का प्रयोजन समाधि को उत्पन्न करने के लिए एवं क्लेशों को प्रक्षीण करने के लिए क्रियायोग का अनुष्ठान किया जाता है। समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च। समाधि को पैदा करना एवं क्लेशों को क्षीण करना ही क्रियायोग का प्रयोजन है। सम्यकरूप से आचरित क्रियायोग समाधि अवस्था को उत्पन्न करता है और अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश रूप सव क्लेशों को प्रकृष्टरूप से क्षीण करता है। प्रक्षीणीकृत क्लेशों को प्रसंख्यानरूप अग्नि के द्वारा दग्ध कर दग्धबीज के समान उत्पादक शक्तिहीन कर देता है। क्रियायोग से अशुद्धि का क्षय होता है। अशुद्धि रजस (चंचलता) और तामस (जड़ता) रूप है अतः अशुद्धि के क्षय होने से चित्त समाधि के अभिमुख होता है। अशुद्धि ही क्लेश की प्रबल अवस्था है अतः अशुद्धि के क्षीण होने से क्लेश भी प्रतन हो जाते हैं। दग्धबीज जैसे अंकुरित नहीं होता वैसे ही संप्रज्ञान द्वारा दग्धबीज क्लेश दुबारा चित्त में नहीं उठते हैं। ___ मैं शरीर नहीं हूं, ऐसे समाधिलभ्य ज्ञान का हेतु समाधि है तथा क्लेश की क्षीणता उस ज्ञान की सहायिका है। समाधि और क्लेशक्षीणता का हेतु क्रियायोग है। तपस्या से शरीर, इन्द्रिय की स्थिरता, स्वाध्याय से साक्षात्कार करने की उत्सुकता एवं ईश्वर-प्रणिधान द्वारा चित्त स्थिरता साधित होने पर समाधि उद्भूत होती है और प्रबल क्लेश प्रतनु होते हैं, यही क्रियायोग का प्रयोजन है। व्रात्य दर्शन • १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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