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होकर अन्त में समाधि में परिणत हो जाती है। ईश्वर में सर्वभावार्पित योगी को समाधिसिद्धि हो जाती है। उस समाधिसिद्धि से योगी देहान्तर, देशान्तर एवं कालान्तर में होने वाले सभी अभीष्ट विषयों को यथार्थ रूप से जान सकते हैं तथा इसके द्वारा योगी की प्रज्ञा यथाभूतविषय को जानती है। ईश्वर का स्वरूप
__ भारतीय दर्शनों में 'ईश्वर' की अवधारणा है किन्तु ईश्वर के स्वरूप के बारे में विभिन्नता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन जगत् कर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार करता है। जगत् का निर्माण आत्मा और परमाणु से होता है ये दो तत्त्व जगत् के उपादान कारण हैं। ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है। वेदान्त में एक ही सत्य है चैतन्य। जब चैतन्य माया से उपहित होता है तो व्यष्टि स्तर पर जीव और समष्टि स्तर पर ईश्वर कहलाता है। जैनदर्शन विशुद्ध आत्मा को ईश्वर अथवा परमात्मा के रूप में स्वीकार करता है। जैन के अनुसार ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है। कर्मबद्ध आत्मा अपने प्रयत्न से कर्मों का नाश कर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेती है वही परमात्म स्वरूप है। योगदर्शन ने भी ईश्वर को स्वीकार किया है किन्तु वह भी ईश्वर को जगत् कर्ता नहीं मानता, वह साधक का उच्च
आदर्श है। योग के अनुसार ईश्वर अनादिमुक्त है। वह संसार में कभी भी लिप्त हुआ ही नहीं था। ईश्वर को परिभाषित करते हुए योगदर्शन में कहा गया- 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ।' क्लेश, कर्म, विपाक एवं आशय से अस्पृष्ट पुरुष विशेष ईश्वर कहलाता है। अविद्या आदि पांच क्लेश हैं, उन कलेशों से उत्पन्न शुभाशुभ कर्म हैं। पुण्य-पाप कर्म के सुख-दुःख रूप फल विपाक कहलाते हैं तथा सुखदुःखात्मक भोग से जन्य नाना प्रकार की वासना आशय कही जाती हैं। इन क्लेश, कर्म, विपाक एवं आशय से असम्बद्ध पुरुषविशेष ही ईश्वर है, जो उपासक का उपास्य है। स तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वरः वह पुरुषविशेष सदैव मुक्त है एवं सदैव ही ईश्वररूप में स्थित है। जिसमें ऐश्वर्य परम प्रकर्ष को प्राप्त हो जाता है वही पुरुष ईश्वर है। ईश्वर सर्वज्ञ होता है। ‘स सर्वज्ञः सर्ववित्।' ईश्वर में सर्वज्ञबीज पराकाष्ठा को प्राप्त हो जाता है। 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।' ईश्वर भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालों में स्थित प्रमेय जगत् को युगपत् जानता है।
१७२ - व्रात्य दर्शन
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