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अर्जुन! तुम जो भी कार्य करो, भक्षण करो, यज्ञ करो, दान करो या तप करो वह सब मुझको अर्पण कर दो।
जब सब कुछ ईश्वरार्पण होगा तब व्यक्ति चिन्ता के भार से मुक्त हो जायेगा और निश्चिन्त व्यक्ति को ही समाधि लाभ सहजता से प्राप्त होता है। कर्मफलसंन्यास
ईश्वरप्रणिधान का एक अर्थ है व्यक्ति कर्म करे किन्तु कर्मफल प्राप्ति की इच्छा न करे। उसे यह चिन्तन करना चाहिये कि कर्म करने में मैं स्वतंत्र हूं, उसके फल की कामना मुझे नहीं है। कार्य करना मेरे अधीन है किन्तु उसकी फल प्राप्ति मेरे अधीन नहीं है। मुझे कर्त्तव्यभाव से कर्म करते रहना है जो साधक इस प्रकार अपने करणीय कार्य में निरत रहता है वह कभी तनाव का वेदन नहीं करता। असमाधिस्थ नहीं बनता। समाधि की प्राप्ति उसके लिए सुलभ हो जाती है। गीता में कहा गया
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि ॥ अनासक्त भाव से कार्य का सम्पादन करता हुआ साधक अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। कर्मफल संन्यास का तात्पर्य भी यही है कि व्यकि यह चिन्तन करता रहे कि कार्य करना मेरा कर्तव्य है, मेरे अधिकार में है, इस कार्य का फलभोक्ता तो ईश्वर ही है। वार्तिक में कहा भी है कि-'कर्मफलनामीश्वरो भोक्तेतिचिंतनं कर्मफलसंन्यासः।' कर्मफलसंन्यास का सिद्धान्त साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यदि यथार्थ रूप में इस सूत्र का जीवन में अवतरण हो जाता है तो साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ईश्वर-प्रणिधान का फल
ईश्वर-प्रणिधान यथानियत आचरित होने पर उसके द्वारा समाधि की सिद्धि सुखपूर्वक होती है।
'समाधिसिद्धिश्वरप्रणिधानात्'
ईश्वर-प्रणिधान समाधि का साक्षात् सहायक होता है क्योंकि वह समाधि के अनुकूल भावना स्वरूप है। वह भावना प्रगाढ़ होकर शरीर को निश्चल और इन्द्रियों को विषय विरत करती है और धारणा तथा ध्यान के रूप में परिपक्व
व्रात्य दर्शन - १७१
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