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________________ श्रद्धा से जो शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक इन तीन प्रकार के तप का अनुष्ठान किया जाता है, उसे सात्त्विक तप कहते हैं। श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत त्रिविधं नरैः। अफलकांक्षिभिर्युक्तैः सात्विकं परिचक्षते ॥ १७१७ २. राजस-सत्कार, सम्मान एवं पूजा के लिए दम्भपूर्वक जो तप किया जाता है, उसे राजस तप कहते हैं। वह तप चल एवं अनित्य होता है। सत्कारमानपूजार्थं तपोदम्भेन चैव यत्। क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥ १७१८ ३. तामस-मूढ़तापूर्वक मन, वाणी और शरीर को पीड़ा देकर अथवा दूसरों का अनिष्ट करने के लिए जो तप किया जाता है, वह तामस तप है। मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ राजस एवं तामस तप योग सिद्धि में बाधक हैं। सात्त्विक तप का ही अन्तर्भाव क्रियायोग में हो सकता है। तप की उपादेयता __योगसिद्धि के लिए तप की अनिवार्य अपेक्षा है। अतपस्वी के योग की सिद्धि नहीं होती। ‘नातपस्विनो योगः सिद्धयति ।' अनादिकालीन कर्म और क्लेश की वासना से विचित्र (अर्थात् सहजभावपन्ना) तथा विषय-जाल युक्त जो अशुद्धि है वह तपस्या के बिना नष्ट नहीं हो सकती अतएव तप का सर्वप्रथम ग्रहण किया गया है। तपस्या के द्वारा व्युत्थानचित्त समाहित होने लगता है। तपस्या करने में विवेक एक प्रश्न उपस्थित किया गया कि स्वाध्याय, ईश्वरप्राणिधान तो तत्त्वज्ञान एवं ईश्वर के अनुग्रह के कारण होने से योग के उपकारक हो सकते हैं किन्तु तप के द्वारा शरीर एवं इन्द्रियों का शोषण होता है वह योग के लिए उपकारी कैसे हो सकता है? तप के द्वारा चित्त में क्षोभ भी पैदा हो जाता है अतः वह समाधि का बाधक बन जाता है समाधि का साधक नहीं बनता। इस समस्या के समाधान में कहा गया कि तप विवेकपूर्वक ही करणीय है। व्यास भाष्य में व्रात्य दर्शन . १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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