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कहा गया कि जो तप चित्त की प्रसन्नता का हेत तथा योगसाधना में विघ्न पैदा करने वाला नहीं हो वही तप योगियों द्वारा आचरणीय है।
'तच्च चित्तप्रसादनमबाधमानमनेनासेव्यमिति मन्यते।'
व्याधि, शरीर की पीड़ा, चित्त की अप्रसन्नता ये योग के विघ्न हैं। यदि तप से योग के ये विघ्न पैदा होते हैं तो वह अकरणीय है। जैन परम्परा ने भी आभ्यन्तर तप के उपबृंहण के लिए बाह्य तप को स्वीकार किया है। उपवास आदि करने से यदि ध्यान, स्वाध्याय आदि में बाधा उपस्थित होती हो तो वैसा बाह्य तप अकरणीय है।
गीता में भी कहा गया कि अत्यधिक खोने वाले अथवा सर्वथा न खाने वाले, अधिक जागने वाले अथवा अधिक सोने वाले के योग नहीं हो सकता।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ जो आहार-विहार, शयन-जागरण तथा अन्य कार्यों में नियमित है, उसका योग दुःख का नाशक होता है। तप को शरीर क्रियायोग भी कहा जाता है।
तपस्या का फल
तप के द्वारा आवरण का क्षय हो जाने से कायसिद्धि एवं इन्द्रियसिद्धि होती है। सम्पाद्यमान तप अशुद्धिजनित आवरणमल को नष्ट कर देता है। उस आवरण के हट जाने पर अणिमा आदि कायसिद्धियां एवं दूरश्रवण आदि इन्द्रियसिद्धियां उत्पन्न होती है। प्राणायाम आदि तपस्या द्वारा शरीर की वशवर्तितारूप अशुद्धि दूर हो जाती है। शरीर का वशीभाव दूर होने से तज्जनित आवरण भी दूर होता है। उस समय शरीर निरपेक्ष चित्त अव्याहत इच्छाशक्ति के प्रभाव से कायसिद्धि तथा इन्द्रियसिद्धि की प्राप्ति कर सकता है। यद्यपि तपस्या को योगी लोग सिद्धि की तरफ प्रयुक्त नहीं करते हैं। उनका परमार्थ ही एकमात्र लक्ष्य होता है किन्तु प्रासंगिकरूप से ये सिद्धियां भी उन्हें प्राप्त हो जाती हैं।
विनिद्रता, निश्चलस्थिति, निराहार, प्राणरोध आदि तपस्या मानुष प्रकृति के विरुद्ध और दैव प्रकति के अनुकूल है अतः ऐसी तपस्या से काय एवं इन्द्रिय सिद्धि प्राप्त हो जाती है। समाधि के लिए तपस्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
१६८ . व्रात्य दर्शन
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