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के नाश हो जाने पर उनका सत्वरूपी प्रकाश बढ़ जाता है।
तप के प्रकार
तप को तीन प्रकार का कहा गया है।
शरीर तप
आसन, प्राणायाम और सात्विक आहार, विहार आदि को शरीर तप कहा जाता है। वार्तिक में देव, ब्राह्मण, गुरु एवं प्राज्ञ की पूजा, शौच, आर्जव, ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा को शरीर तप कहा गया है।
'देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥' इसी प्रकार के अन्य अनुक्त कार्य जो शरीर से सम्बन्धित हैं उनको शारीरिक तप कहा जा सकता है। वाचिक तप
वाणी पर संयम रखना वाचिक तप है। सत्य, प्रिय, आवश्यकतानुसार दूसरों का यथायोग्य सम्मान करते हुए बोलना भी वाचिक तप के अन्तर्गत आता है। जो क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि कारणों से भी वचन का अन्यथा प्रयोग नहीं करता। हित, मित, संतुलित भाषा का प्रयोग करता है वह वाचिक तप का प्रयोक्ता कहलाता है।
मानसिक तप
हिंसात्मक, क्लिष्ट भावनाओं तथा अपवित्र विचारों से मन को हटाना, मानसिक तप है। अष्टांग योग का एक भेद प्रत्याहार-मानसिक तप का ही भेद है। प्रत्याहार का अर्थ है पीछे हटना। इसमें इन्द्रियां अपने बहिर्मख विषय से पीछे हटकर अन्तर्मुख हो जाती हैं। साधना के क्षेत्र में प्रत्याहार का महत्त्वपूर्ण स्थान
गीता में सात्त्विक, राजस एवं तामस के भेद से भी तप को तीन प्रकार कहा कहा है
१. सात्त्विक-फल की इच्छा न करने वाले निष्काम पुरुषों के द्वारा परम
१६६ - व्रात्य दर्शन
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