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क्रियायोग की परिभाषा
कर्म से विरत होने के लिए योग को लक्ष्य बनाकर जो कर्म का आचरण किया जाता है उसे क्रियायोग कहते हैं।
कर्मविरतये योगमुद्दिश्य कर्माचरणं क्रियायोगः। (भास्वती टीका)
जैसे कांटे के द्वारा कांटा निकाला जाता है वैसे ही योग के अंगभूत कर्म से योग विरोधी कर्मों का उन्मूलन क्रियायोग के द्वारा किया जाता है। तत्त्ववैशारदी में 'क्रियैव योगः क्रियायोगः, योगसाधनत्वात्' कहकर क्रियायोग को परिभाषित किया है। यहां क्रिया को ही योगरूप में व्याख्यायित किया है। क्रियायोग के अंग
तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान ये क्रियायोग के अंग हैं- 'तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।' इस क्रियायोग के अन्तर्गत ज्ञान, कर्म एवं भक्तियोग तीनों का समावेश हो जाता है। ईश्वरप्रणिधान यह भक्तियोग है, प्रस्तुत प्रसंग में यह क्रियायोग के मध्य समाहित है। वार्तिकम् में इसका स्पष्ट उल्लेख भी है। 'ईश्वरप्रणिधानरूपो भक्तियोगोऽप्यत्र क्रियायोगमध्य एव प्रवेशितः' तप एवं स्वाध्याय का कौन-से योग में समावेश होता है इसका उल्लेख वार्तिक में प्राप्त नहीं है किन्तु विमर्श करने से प्रतीत होता है कि तप कर्मयोगरूप एवं स्वाध्याय ज्ञानयोगरूप है। तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग स्वीकार करने से कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग इन तीनों का अन्तर्भाव एक क्रियायोग में किया जा सकता है।
तपः क्रियायोग
विषयसुख का त्याग अर्थात् कष्ट सहन के साथ जिन कर्मों से आपाततः सुख होता है उन कर्मों के निरोध की चेष्टा करना तप है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, स्थान-आसन आदि द्वन्द्वों को जीतना तप है। 'तपो द्वन्द्वसहनम् ।' इन द्वन्द्वों को जीतने के लिए विभिन्न प्रकार के व्रतों का उल्लेख किया गया है। जिस प्रकार अश्व-विद्या में कुशल सारथि चंचल घोड़ों को साधता है इसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियों और मन को उचित रीति से वश में करना भी तप कहलाता है। जिस प्रकार अग्नि में तपाने से धातु का मल क्षय हो जाने से उसमें स्वच्छता और चमक आ जाती है, इसी प्रकार तप की अग्नि में शरीर, इन्द्रियों आदि के तमोगुणी आवरण
व्रात्य दर्शन . १६५
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