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है परन्तु सभी भूमियों का निरोध योग नहीं है। मात्र एकाग्र एवं निरुद्ध अवस्था का निरोध ही योग है। एकाग्र अवस्था में बाह्य घट आदि वृत्तियां तथा आन्तरिक काम आदि वृत्तियां लीन हो जाती है और एकमात्र ध्येयाकाररूप में वृत्ति विद्यमान रहती है, इसी को सम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है। जब परवैराग्य के सतत सेवन से वह ध्येयाकार वृत्ति भी विलीन हो जाती है और सारे संस्कार भी विलीन हो जाते हैं तब असंप्रज्ञात योग निष्पन्न होता है।
समाधि प्राप्ति के हेतु साधन
___ अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध होने से समाधि उत्पन्न होती है। समाधि उत्पादन में अभ्यास और वैराग्य दोनों साथ मिलकर हेतु बनते हैं। पृथक्-पृथक् रहकर समाधि के हेतु नहीं है। यही अभिमत गीता में प्रतिपादित हुआ है। अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं, प्रभो! यह मन बहुत चंचल है इसको वश में कैसे किया जा सकता है? श्रीकृष्ण समाधान देते हुए कहते हैं
असंशयं महाबाहो! मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येण च निगृह्यते ॥ गीता ६/३५ अर्जुन ! निश्चितरूप से यह चंचल मन दुर्निगृह्य है। इस पर नियंत्रण करना कठिन है किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा उसको वश में किया जा सकता है। पातंजलयोगसूत्र का अभिमत है कि समाहित चित्त वाले पुरुष के लिए अभ्यास एवं वैराग्य समाधि उत्पादन के हेतु बनते हैं किन्तु व्युत्थित चित्त वाले के लिए ये सहज हेतु नहीं बन सकते। समाहित चित्त वाला व्यक्ति योग पर आरूढ़ हो चुका है किन्तु व्युत्थित चित्त वाला तो योग का आरुरुक्षु है अर्थात् योग के क्षेत्र में आरोहण करना चाहता है। उसके लिए समाधि उत्पादन का हेतु क्रियायोग बनता है। योग के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों के लिए क्रियायोग को प्रथम कर्तव्य बताया गया है-'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।'
समाहित चित्तवाला योगी योग का उत्तम अधिकारी होता है। वह अभ्यास एवं वैराग्य से सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात योग को प्राप्त कर लेता है किन्तु व्युत्थित चित्त वाले योग के मध्यम अधिकारी को समाधि के साधनभूत अभ्यास एवं वैराग्य सहज सुलभ नहीं है क्योंकि उनका चित्त सांसारिक वासनाओं तथा राग-द्वेष आदि से कलुषित है। उनका चित्त भी शुद्ध होकर अभ्यास और वैराग्य का सम्पादन कर सके इसके लिए क्रियायोग का प्रावधान किया गया है।
१६४ . व्रात्य दर्शन
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